SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठोऽध्यायः सगगी जीव स्वामी होने से उसकी मुख्यता लेकर सम्यक्त्व के बदले प्रेम प्रत्यय, कदाग्रही वगैरा मिथ्याष्टिः स्वामी होने से मिथ्यात्व के बदले द्वष प्रत्यय क्रिया का वहाँ वर्णन किया हुवा है ऐसा समझना. [७] तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववीाधिकरणविशेषेभ्यस्त द्विशेषः । इन गुनचालीस सांपराधिक आश्रव के भेदों की तीव्र-मंद और ज्ञात-अज्ञात भाव विशेष से और वीर्य तथा अधिकरण विशेष से विशेषता है। [८] अधिकरणं जीवाऽजीवाः । जीव तथा अजीव ये दो प्रकार के अधिकरण हैं. फिर उन दोनों के दो दो प्रकार है. द्रव्य अधिकरण और भाव अधिकरण । द्रव्याधिकरण छेदन भेदनादि दशविध शस्त्र और भावाधिकरण एकसो आठ प्रकार के हैं। [6] आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषाय विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ।। पहला यानी जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ इस तरह तीन भेदो का है. फिर उन हरएक के मन, वचन और काया इन तीन योगों के करके तीन तीन भेद होते हैं यानी नौ भेद हुवे. वे फिर उन हरएक के करना, कराना और अनुमोदना इन तीन कारणों से तीन तीन भेद होते हैं यानी २७ भेद हुवे. फिर उन हरएक के क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों से चार चार भेद होते हैं यानी कुल १०८ भेद हुवे।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy