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________________ पञ्चमोऽध्यायः एक स्वभाव से अवस्था का भेद न हो सके और ऐसा हो तो संसार और मोक्ष के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जो अवस्था के भेद को कलपित माने तो वस्तु की अवस्था का भेद उस वस्तु का स्वभाव नहीं होने से वह यथार्थ ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, उसको वस्तु का स्वभाष ही मानने में आवे तो वस्तु अनित्य माने बगेर अवस्थान्तर-दूसरी अवस्था की उत्पत्ति ही न हो सके इससे एकान्त नित्य का अभाव होता है। इस तरह एक ही पदार्थ में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, ये तीनों अंश न माने जावे तो मनुष्यादि वह देवादि रूप न हों ऐसा न हो. तो यम-नियमादि का पालन करना निरर्थक-बेकायदा हो. ऐसा होने से आगम वचन वचन मात्र ही हो. ये सब उत्पाद, व्यय, व्यवहार से बताये हुए हैं। निश्चय से तो हर एक पदार्थ हर क्षण उत्पादादि युक्त हैं, ऐसा मानने से ही भेद की सिद्धि होती है. कहा है कि हरेक व्यक्ति में क्षण क्षण भिन्न भिन्न पणा होता है. इससे नरकादि गति के, संसार और मोक्ष के भेद घटते हैं । हिंसादि नरकादि का कारण है, सम्यक्त्वादि अपवर्ग का (मोक्ष का) कारण है, ये सब उत्पादादि युक्त वस्तु को स्वीकार करने से घटता है, जो उत्पादादि रहित वस्तु को माने तो युक्ति से ये सब घट नहीं सकता। (३०) तद्भावाव्ययं नित्यम् । ___ जो उस स्वरूप से नाश न पावे वह नित्य है. । (३१) अर्पितानर्पितसिद्धः। (पदार्थों की सिद्धि) व्यवहार नय और निश्चय नय के ज्ञान से होती है. उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन रूप सत् और नित्य इन दोनों मुख्य और गौण भेद से सिद्ध है. जैसा कि द्रव्य रूप से मुख्य करके और पर्याय रूप से गौण करके पदार्थ द्रव्य रूप कहलाता है.
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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