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________________ तृतीयोऽध्यायः ३५ समभूतला पृथ्वी की जगह मेरु का १० हजार योजन का फेलाव है । नंदनवन का बाहिर का फैलाव ६६५४६ योजन है, भीतर का फेलाव ८९५४ योजन है, और वहाँ से ११ हजार योजन तक मेरु का विष्कम्भ भी उतना ही है । उसमें से सौमनस वन तक ५१|| हजार योजन रहे, उनकी ४६८१११ योजन कमी करने से ४२७२११ योजन सोमनस वन का बाहिर का विष्कम्भ रहा, और दोनों बाजू के पाँच सो पाँच सो योजन मिलकर १ हजार योजन वन का विष्कम्भ कम करने से भीतर का विष्कम्भ सौमनस वन वा ३२७२ योजन रहा, इस तरह सब जगह समझना । (१०) तत्र भरतहैमवतहरिवर्ष विदेहरम्यक् हैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि | उस जम्बूद्वीप में १ भरत, २ हैमवत, ३ हरिवर्ष, ४ महाविदेह, ५ रम्यकू, ६ हैरण्यवत, ७ रावत ये सात वास क्षेत्र हैं । व्यवहार नय की अपेक्षा से सूर्य की गति के माफिक दिशा के नियम से मेरु पर्वत सब क्षेत्र की उत्तर दिशा में हैं । लोक के बीच में रहे हुवे आठ रुचक प्रदेश को दिशा का हेतु मानने से यथासंभव दिशा गिनी जाती है । (११) तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनील रुक्मिशिखरिणो वर्षधर पर्वताः । उन क्षेत्रों को विभाग करने वाले पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे एक हिमवान, २ महाहिमवान, ३ निषध, ४ नीलवन्त, ५ रुक्मि और ६ शिखरी छ वर्षधर ( क्षेत्र की हद बांधने वाले ) पर्वत हैं ।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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