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________________ द्वितीयोऽध्यायः संसारिक जीवों को जात्यन्तर संक्रान्ति ( एक स्थल से दूसरे स्थल में उत्पन्न होने) में उपपात ( जहां उत्पन्न हो) क्षेत्र की बक्रता के सबब से विग्रह गति होती है, ऋजुगति, एक समय की विग्रह, दो समय की विग्रह भोर तीन समय की विग्रह ये चार तरह की गति होती है। प्रतिघात के और विग्रह के निमित्त का अभाष होने से उसके बनिस्बत ज्यादा समय की विग्रह गति नहीं होती। पुद्गलों की गति भी इसी तरह जाननो। विग्रह गति कब होती है वह कहते हैं (३०) एकसमयोविग्रहः । विग्रह गति एकसमय बाद होती है। __ (३१) एकं द्वौ वाऽनाहारकः । दो और तीन विग्रह वाली गती में क्रम से एक समय या दो समय अणाहारी होता है (षा कहने से चार विमह में तीन समय भी होते हैं।). (३२) सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म । सरमूर्छन, गर्भ, और पपात ये तीन तरह के जन्म होते हैं। (३३) सचित्तशीतसंघृताः सेतरा मिश्रा कशस्तद्योनयः । तीन प्रकार के जन्म पाले जीवों की १ सचित्त, २ शीत और ३ संवृत, (ढकी हुई-गुप्त) तीन प्रकार की इसी तरह इनकी तीन प्रतिपक्षी (अचित्त, उष्ण और विकृत- प्रगट) और मिश्र यानी सचित्त भचित्त, शीतोष्ण, संघृत विवृत, भेद वाली योनियें होती है, यानी इसी तरह नो तरह की योनियें है।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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