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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (५) ज्ञानाऽज्ञान-दर्शन-दानादिलब्धयश्चतुस्वित्रिपञ्चभेदाः ___ सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । मति वगेरा चार प्रकार का ज्ञान, तीन प्रकार का अज्ञान, चक्षुर्दर्शनादि तीन प्रकार का दर्शन और पांच प्रकार की दानादि लब्धि तथा समकित, चारित्र और संयमासंयम ( देशविरति पण) ये अठारा भेद क्षायोपश मक भाव के हैं। (६) गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्व लेश्या चतुश्चतुस्त्येकैकैकैकषड्-भेदाः । नारकादि चार गति, क्रोधादि चार कषाय, स्त्रीवेदादि तीन लिग, मिथ्या दर्शन, अज्ञान, भसंयतत्व, असिद्धत्व और कृष्णादि छः लेश्या मिलकर २१ भेद औदयिक भाव के होते हैं। (७) जीवभव्याभव्यत्वादीनि च । जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, वगेरा भेद पारिणामिक भाव के होते है। ___ आदि शब्द से अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, गुणत्व, असर्वगतत्व, अनादि कर्मबंधत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व, नित्यत्व, ये वगेरा भेदों का ग्रहण करना। जीव का लक्षण. (८) उपयोगो लक्षणम् । उपयोग यह जीव का लक्षण है। ___(8) स द्विविऽधोष्टऽष्टचतुर्भेदः । वह उपयोग दो प्रकार का है । साकार और अनाकार वह फिर क्रम से १ साकार ज्ञान (५ ज्ञान ३ अनान) आठ प्रकार का है।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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