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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् -अब प्रसंग से नयाभास का स्वरूप बतलाते हैं : अनन्त धर्मात्मक वस्तु में अभिप्रेत धर्म को ग्रहण करने वाला और उनसे उलटे धर्मों का तिरस्कार करने वाला नयाभास कहलाता हैं. .. द्रव्य मात्र को ग्रहण करने वाला और पर्याय को तिरस्कार करने वाला द्रव्यार्थिक नयाभास.कहलाता और पर्याय. मात्र को ग्रहण करने वाला और द्रव्य को तिरस्कार करने वाला पर्यायार्थिक नयाभास कहलाता है. । . . . . . . . .. . : धर्मी और.धों का-एकान्त भेद मानने वाला नैसमाभास है, जैसा कि नैयायिक और वैशेषिक दर्शन. , . . . , - सत्ता रूप महा सामान्य को स्वीकार करने वाला और. समस्त विशेष को खंडन करने वाला संग्रहाभास है, जैसा कि अतवाद दर्शन और सांख्य दर्शन: अपारमार्थिक पणे द्रव्य-पर्याय का विभाग करने वाला व्यवहाराभास है. जैसा कि चार्वाक दर्शन, जीव और उसके द्रव्य पर्यायादि को चार भूत से जुदा नहीं, मानता सिर्फ भूत की सत्ता को ही स्वीकार करता है. वर्तमान पर्याय को स्वीकार करने वाला और सर्वथा द्रव्य को अपलाप करने वाला अजुसूत्रा; भास है, जैसे बौद्ध दर्शन. कालादि के भेद से वाच्य अर्थ के भेद को ही मानने वाला शब्दाभास है.. । जैसा कि मेरु पर्वत था, है, रहेगा. ये शब्द भिन्न अर्थ को ही कहते हैं. . . . .., .पर्याय शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ का ही स्वीकार करने वाला समभिलढाभास है, जैसा कि इन्द्र, शक, पुरन्दर, वगैरा शब्द जुदा जुदा अर्थ वाले हैं. इस तरह जोमाने वह.समभिरू दाभास कहलाता है. क्रिया सहित वस्तु को वाच्य नहीं मानने वाला एवंभूताभास है. जैसे चेष्टा रहित घट वह घट वाच्य नहीं. ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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