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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ____ हर एक वस्तु में अनन्त धर्म रहे हुए हैं उनमें के अभीष्ट धर्म को ग्रहण करने वाला और अन्य प्रमों का अपलाप नहीं करने वाला जो ज्ञाता का अध्यवसाय विशेष वह नय कहलाता है। वह नय, प्रमाण का अंश होने से प्रमाण और नय का परस्पर भेद है जैसा कि समुद्र का एक देश समुद्र नहीं उसी तरह असमुद्र भी नहीं, इसी रीति से नय, प्रमाण भी नहीं और अप्रमाण भी नहीं लेकिन प्रमाण का एक देश है । वे नय दो तरह के हैं द्रव्य.र्थिक और पर्यायार्थिक द्रव्य मात्र को ग्रहण करने वाला नय द्रव्याथिक नय कहलाते हैं, उनमें नेगम संग्रह भोर व्यवहार इन तीन नयों का समावेश होता है और जो पर्याय मात्र को ही ग्रहण करते हैं वे पर्यायार्थिक नय कहे जाते हैं, उनमें ऋजुसूत्र, साम्प्रत, ( शब्द ) समभिरूढ़ और एवंभूत इन चार नयों का समावेश होता है । सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला संग्रहनय है उसके दो भेद हैं। परसंग्रह और अपरसंग्रह । तमाम विशेष तरफ से उदासीन रहकर सत्तारूप सामान्य को ही ग्रहण करे वह परसंग्रह कहलाता है और जो द्रव्यत्व आदि अवान्तर सामान्य ग्रहण करे वह अपर संग्रह कहा जाता है, संग्रह नय से विषयभूत किये हुए पदार्थों का विधान करके उनही का विभाग करने वाला जो अध्यवसाय विशेष वह व्यवहार नय कहलाता है, जैसे कि जो सत् है वह द्रव्य अथवा पर्याय स्वरूप है। द्रव्य छ: प्रकार का है और पर्याय दो प्रकार का है। ऋजुसूत्र-ऋजु-वर्तमान क्षण में रहे हुए पर्याय मात्र को खास रीति से ग्रहण करे वह ऋजुसूत्र नय है, जैसा कि "अभि सुख" यह जुसूत्र नय है, सुख रूप वर्तमान ( मौजूदा ) पर्याय ही को ग्रहण करता है । ( काल, कारक, लिंग, कालादि की संख्या और उपसर्ग के ) भेद से शब्द के भिन्न अर्थ को स्वीकार करने वाला
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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