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________________ प्रथमोऽध्यायः प्राभृत, प्राभृतप्राभृत, अध्ययन और उद्देशे किये हुवे हैं। । फिर यहाँ शिष्य शंका करता है कि-मतिज्ञान और अ तज्ञान का एकसा विषय है जिससे दोनों एक ही है. उनको गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि-पहले कहे मुजिब मतिज्ञान, वर्तमानकालाविषयक है और श्रु तज्ञान त्रिकाल विषयक है और मतिज्ञान की अपेक्षा श्र तज्ञान शुद्ध है, फिर मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तक है और आत्मा के स्वभाव से परिणमता (रूपान्तर होता) है। और श्रुतज्ञान तो मतिपूर्वक है और प्राप्त (विश्वास वाले ) पुरुष के उपदेश से उत्पन्न होता है। . . . . . । . ५. . . (२१) द्विविधोऽवधिः। अवधिज्ञाने दो तरह का हैं । १ भव प्रत्यय ओर २ क्षयोपशम प्रत्यय. (निमित्तक)।। . . . . ' ' (२२) भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । . नारकी और देवताओं को भत्र प्रत्ययिक ( अवधि ) होता है। भव है कारण जिसका. वह भा प्रत्यायिक । क्योंकि देव या नारकी के भव की उत्पत्ति यही उस ( अवधिज्ञान) का कारण है। जिस तरह के पक्षियों का जन्म, आकाश की गति ( उड़ने ) का कारण है लेकिन उसके लिये शिक्षा या तप की जरूरत नहीं, इस तरह देव या नारकी में पैदा हुआ उसको अबधि जन्म से होता है। ...... (२३) यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् । ... बाकी के (तिर्य च और मनुष्य ) क्षयोपशम निमित्त अवधिज्ञान होता है । वह छ विकल्प (भेद ) वाला है:- १ अनानु. गामी ( साथ नहीं आने वाला), २ आनुगामी (साथ रहने वाला),
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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