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________________ दशमोऽध्यायः १०७ प्रज्ञापनीयनय की विवक्षा से जन्म की अपेक्षा से १५ कर्म भूमी में उत्पन्न हों वह सिद्ध होता है और संहरण की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र में रहा हुआ सिद्धपद को पाता है। उनमें प्रमत्त संयत और देश विरत का संहरण होता है। साध्वी, वेदरहित, परिहारविशुद्धि चारित्रवाला, पुलाक चारित्री, अप्रमत संयत, १४ पूर्वधर और आहारक शरीरी इन का संहरण नहीं होता, ऋजुसूत्र और शब्दादि तीन नय पूर्वभाव को जणाते हैं, और बाकी के नेगमादि तीन नय पूर्वभाव तथा वर्तमानभाव इन दोनों को जणाते हैं। (२) काल-किस काल में सिद्ध होते हैं ? यहाँ भी दो नय की अपेक्षा से विचार करना जरूरी है। प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीषनय की विवक्षा से काल के अभाव में सिद्ध होते हैं (क्योंकि सिद्धि क्षेत्र में काल का अभाव हैं ) पूर्वभाव प्रज्ञा-पनीयनय की विवक्षा से जन्म और संहरण की अपेक्षा से विचार करने का है। जन्म से सामान्य रीति से अवसर्पिणि और उत्सर्पिणी में या नो उत्सर्पिणी काल (महाविदेह क्षेत्र) में हैं और विशेष से भवसर्पिणी में सुषम-दुःषम आरा के संख्याता वर्ष वाकी रहे तब जम्मा हुआ सिद्धपद को पाता है, दुःषम-सुषमा नाम के चौथे आरे में उत्पन्न हो वह चौथे तथा दुषमा नाम के पाँचवें आरे में मोक्ष को जाता है। लेकिन पांचवें आरे में जन्मा हुवा मोक्ष को नहीं जाता है। संहरण के आश्रय से सब काल में अवसर्पिणी उत्सपिणी और नो उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में मोक्ष को जाता है। (३) गति-प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीयनय की विवक्षा से सिद्धिगति में सिद्ध होता है। पूर्वभाव प्रज्ञापनीय नय के दो प्रकार है, अनन्तर पश्चात् कृतगतिक अन्यगतिके भांतरे रहित भौर एकान्तर पश्चात कृतगतिक ( एक मनुष्य गति के अन्तर वाला) अनन्तर पश्चात् कृतगतिक नय की विवक्षा से मनुष्य गति में उत्पन्न हुवे
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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