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________________ - दशमोऽध्यायः १०५ इन चार प्रकृतियों का क्षय केवलज्ञान का हेतु है, सूत्र में मोह के क्षय से ऐसा अलग ग्रहण किया है वह क्रम दर्शाने के लिये जानना। इससे यह बतलाया जाता है कि-मोहनीय कर्म प्रथम सर्वथा क्षय होवे उसके पीछे भन्तमुहूर्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय इन तीन कर्मों का एक साथ क्षय होय तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है। (२) वन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । __ मिथ्या दर्शन के कारण से होने वाले बन्ध के अभाव और बांधे हुए कर्म की निर्जरा से सम्यग दर्शनादि की यहाँ तक के केवल ज्ञान की उत्पति होती है। (३) कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। सकल कर्म का क्षय वह मोक्ष कहलाता है। (४) औपशमिकादिभव्यत्वाभावाचान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः। केवल (क्षायिक) सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व (ये क्षायिक भाव सिद्ध को निरन्तर होते हैं इस वास्ते) दर्शन सप्तक के क्षय होने से केवल सम्यक्त्व, ज्ञानावरण के चय होने से केवलज्ञान , दर्शनावरण के क्षय होने पर केवलदर्शन और समस्त कर्मो के क्षय होने पर सिद्धत्व प्राप्त होता है) सिवाय बाकी के औपशमिकादिभाव और भव्यत्व का अभाव होने से मोक्ष होता हैं। [५] तदनन्तरम्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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