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________________ श्री तत्त्त्रार्थाधिगमसूत्रम् (३) निसर्गादधिगमाद्वा । Es सम्यग्दर्शन निसर्ग ( यानी दूसरे के उपदेश बगैर स्वाभाविक परिणाम - अध्यवसाय ) से या अधिगम ( शास्त्र श्रवणउपदेश) से होता है । २ (४) जीवाऽजीवाश्रव-बन्ध-संवर- निर्जरा - मोक्षास्तत्त्वम् । जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । (५) नाम - स्थापना - द्रव्य- भावतस्तन्न्यासः । भावार्थ:- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से जीवादि सात तत्त्व के निक्षेप होते हैं । विस्तार से लक्षण और भेद जानने के लिये विभाग करना वह निक्षेप कहा जाता है, जैसे कि- सचेतन या अचेतन द्रव्य का "जीव" ऐसा नाम देना वह नामजीव;" काष्ट पुस्तक चित्र वगैरा में "जीव" ऐसी स्थापना करनी वह स्थापनाजीव, जैसे देव की प्रतिमा; गुण- पर्यायरहित, बुद्धि से माना हुआ, अनादि पारिणामिक भाव वाला जीव वह द्रव्यजीव ( यह भांगा शून्य है क्योंकि अजीव का जीवपणा हो तब द्रव्यजीव कहलावे, जो हो नहीं सकता); औपशमिकादिभाव सहित उपयोग से वर्तता जीव वइ भावजीव इस तरह जीवादि सब पदार्थों में जान लेना । (६) प्रमाणन यैरधिगमः । इन जीवादितत्त्वों का प्रमाण और नय से ज्ञान होता है । जिससे पदार्थ के सब देश जानने में आवे उसे प्रमाण और जिससे पदार्थ का एक देश जानने में आवे उसे नय कहते हैं ।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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