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________________ - ४ तत्त्वार्थस्त्र । विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २२ ॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमईदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावनाप्रवचनवत्स लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे योगेनकी कुटिलाई कुवाद सु नाम अशुभको आश्रव तीरा ॥१२॥ अहँ जोगनकी सरलता, शास्त्र कहे तैं जान । आश्रव है शुभ नामको, या विध सूत्र बखान ॥१३॥ चौपाई। सम्यकदर्शन निरमल जान । तीन रतन जुत पुरुष बखाना ताकी विनय करै बहु भांति । शील विरत पालै चित शांति ॥१४ ज्ञानी योग निरंतर साध । भव भयभीत रहै निरवाध ॥ शक्ति समान दान तप सार । साधुपुरुषको विघन निवार ॥१५॥ सेवा औ सश्रूषा करै । सोई वैय्यावत अनुसरै । अरहत आचारज मनलाय । बहुश्रुति प्रवचन भक्ति कराय ॥१६॥ छ आवश्यक किरिया करै । हर्ष प्रभावनमैं जो धरै ।। करि सिद्धांतविर्षे जो प्रीति । यह षोढ़शभावनकी रीति ॥१७॥ |
SR No.022517
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhotelal Pandit
PublisherJain Bharti Bhavan
Publication Year1867
Total Pages70
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size5 MB
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