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________________ आत्मा के शरीर परिमाण की सिद्धि ___ जैन दार्शनिकों ने आत्मा को शरीर परिमाण सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क भी दिये हैं1. गुण गुणी की अभिन्नता से आत्मा को शरीर परिमाण सिद्ध करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है- . यत्रैव यो दृष्ट गुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतद्। तथापि. देहात् बहिरात्मतत्त्वमतत्ववादोपहता पतन्ति।। आत्मा शरीर-परिमाण वाला है, क्योंकि उसके ज्ञानादि गण शरीर में ही दृष्टिगोचर होते हैं, शरीर के बाहर नहीं। जिस वस्तु के गुण जहाँ उपलब्ध नहीं होते, वह वस्तु, वहाँ नहीं होती, उदाहरणार्थ-अग्नि के गुण जल में नहीं होते इसलिए अग्नि जल में नहीं होती। उसी प्रकार शरीर के बाहर आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। 2. सुख-दुःख की संवेदना शरीर में होने से आत्मा को शरीर परिमाण मानने का एक कारण यह भी है कि शरीर के किसी भी भाग में होने वाली वेदना की अनुभूति आत्मा को होती है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार की अनुभूति शरीर में ही दृष्टिगोचर होती है अतः सुख-दुःख का प्रभाव शरीर के साथ आत्मा पर पड़ने से यह सिद्ध है कि आत्मा शरीर परिमाण 3. संकोच-विकोच शक्ति के कारण ___ आत्मा को शरीर परिमाण मानने का कारण उसमें प्राप्त संकोच और विस्तार की शक्ति भी है। प्रश्न पूछा गया- असंख्येय प्रदेश वाले अनन्तानन्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में किस प्रकार रहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया कि आत्मा में दीपक की तरह
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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