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प्रस्तावना
दर्शन के अनेक पक्ष हैं - तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, प्रमाण मीमांसा, आचार मीमांसा आदि । प्रस्तुत पुस्तक में जैन तत्त्व मीमांसा और आचार मीमांसा का विवेचन है। तत्त्व मीमांसा और आचार मीमांसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तत्त्व मीमांसा के आधार पर ही आचार-मीमांसा का प्रासाद निर्मित होता है। तत्त्व के मूल स्वरूप की मीमांसा करना तत्त्व-मीमांसा का विषय है। जैन दर्शन में तत्त्व को विस्तार से समझाने के लिए दो पद्धतियां काम में ली गई हैं – जागतिक और आत्मिक। जहां जागतिक विवेचन की प्रमुखता है, वहां छः द्रव्यों की चर्चा है और जहां आत्मिक तत्त्व प्रमुख है, वहां नौ तत्त्वों का विवेचन उपलब्ध होता है।
जैन दर्शन में तत्त्व के लिए सत्, द्रव्य, अर्थ, पदार्थ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। " तस्य भावः तत्त्वम्" के आधार पर वस्तु के द्रव्य एवं भाव स्वरूप को तत्त्व कहा गया है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकं सत् के अनुसार तत्त्व का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप है। दूसरे शब्दों में द्रव्य - पर्याय रूप है। जैन दर्शन ..के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं- - जीव और अजीव । छः द्रव्य और नौ तत्त्व इन्हीं का विस्तार है।
जैन आचार मीमांसा का मुख्य उद्देश्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप है – अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति । संसारी अवस्था में आत्मा का शुद्ध स्वरूप कर्मों से आवरणित रहता है। सम्यक् आचार के द्वारा आत्मा को कर्म - बंधन से मुक्त कर परमात्म- पद पर अवस्थित करना ही जैन आचार मीमांसा का ध्येय है। भगवान् महावीर ने आचार के मुख्य दो मार्ग बतलाये हैं— श्रमणाचार और श्रावकाचार |
प्रस्तुत पुस्तक पांच इकाइयों में विभक्त है। प्रथम दो इकाई तत्त्व-मीमांसा से संबंधित हैं तथा अंतिम तीन इकाई आचार-मीमांसा से संबंधित हैं।
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