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________________ और व्यापक तत्त्व होना चाहिए, अतः ये भी विभाजक तत्त्व नहीं बन सकते। अब दो द्रव्य शेष रह जाते हैं-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। ये दोनों स्थिर और व्यापक हैं। ये ही अखंड आकाश को दो भागों में बांटते हैं। ये दो द्रव्य जिस आकाश खण्ड में व्याप्त हैं, वह लोक है और शेष आकाश अलोक। अतः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोक और अलोक के विभाजक तत्त्व हैं। जहाँ तक ये तत्त्व हैं, वह लोक और जहाँ खाली आकाश है, वह अलोक है। अलोक में इन दोनों तत्त्वों का अभाव होने से वहां जीव और पुद्गल की गति-स्थिति नहीं होती। लोक के प्रकार यह लोक तीन भागों में विभक्त है1. ऊर्ध्वलोक, 2. मध्यलोक (तिर्यक् लोक), 3. अधोलोक। 1. ऊर्ध्वलोक जहाँ पर हम लोग रहते हैं, उससे नौ सौ योजन ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक कहलाता है। ऊर्ध्वलोक में मुख्य रूप से देवों का निवास है। इसीलिए उसे देवलोक, ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक भी कहते हैं। अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थसिद्ध है। उससे बारह योजन ऊपर सिद्ध-शिला है, जहाँ मुक्त जीव रहते हैं। इस स्थान के बाद लोक का अंत हो जाता है तथा केवल आकाश अर्थात् अलोक रह जाता है। 2. मध्यलोक मध्यलोक 1800 योजन प्रमाण है। इस लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र परस्पर एक-दूसरे को घेरे हुए हैं। इतने विशाल क्षेत्र में केवल अढ़ाई-द्वीप में ही मनुष्य का निवास माना गया है। जम्बूद्वीप,
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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