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________________ 179 6. संलेखना : संथारा जन्म और मरण जीवन के दो किनारे हैं। व्यक्ति जन्म लेता है, जीवन जीता है और आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि जीवन के साथ मृत्यु का अनिवार्य संबंध है। जीवन के अगल-बगल चारों ओर मृत्यु का साम्राज्य है। जीवन के पश्चात् मृत्यु निश्चित है। कोई भी इसका अपवाद नहीं है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने जीने की कला सिखाने का प्रयास किया है। जीवन कैसे जीना चाहिए? इस विषय पर बहुत कहा गया है, बहुत लिखा गया है। पर मरने की भी कोई कला होती है, कैसे मरना चाहिए? इस विषय पर बहुत कम लिखा गया। भगवान महावीर ने जीने की कला सिखायी उसी तरह मरने की कला भी सिखायी। संलेखनापूर्वक समाधिमरण का वरण वही कर सकता है, जो मरने की कला सीख चुका है। श्रावक के लिए बारह व्रतों की आराधना करना तथा श्रमण के लिए पांच महाव्रतों की आराधना करना जीने की कला है और संलेखनापूर्वक जीवन - यात्रा का समापन मरने की कला है। संलेखना का अर्थ संलेखना शब्द 'सम्' और 'लेखना' – इन दो शब्दों के संयोग से बना है। सम् का अर्थ है – सम्यक् और लेखना का अर्थ है - कृश करना। आचार्य अभयदेव ने संलेखना को परिभाषित करते हुए लिखा है - जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं कषाय को कृश (दुर्बल) किया जाता है, वह संलेखना है। शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव संलेखना है। संलेखना में शरीर और कषाय को साधक इतना कृश कर लेता है कि उसके अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की कामना नहीं रहती ।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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