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________________ 172 इस प्रकार यह नवसूत्री जैन जीवनशैली एक आदर्श जीवनशैली है। इसे अपनाने वाले व्यक्ति स्वस्थ समाज संरचना की इकाई बन सकते हैं। 5. परिग्रह - परिमाण व्रत जैन आचार श्रमणाचार और श्रावकाचार के भेद से दो भागों में विभक्त हैं। श्रमण परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं अतः उनका व्रत अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है। जैन परम्परा में श्रमण ( मुनि) को अनासक्त चेतना के विकास के लिए सचेष्ट किया गया है। उनके लिए कहा गया - जिस प्रकार समुद्र को पार करने के लिए नौका आवश्यक है किन्तु समुद्र -यात्री उस नौका में आसक्त नहीं होता, उसी प्रकार जीवन-निर्वाह के लिए वस्त्र, पात्र आदि धार्मिक उपकरणआवश्यक हैं किन्तु मुनि उसमें आसक्त न बने। आसक्तिवश आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करे। किन्तु श्रावक का जीवन बिना परिग्रह के संचालित नहीं होता अतः उनके लिए परिग्रह का पूर्ण त्याग करना अनिवार्य नहीं होता। उनका व्रत परिग्रह-परिमाण (इच्छापरिमाण) अणुव्रत कहलाता है। श्रावक के लिए संग्रह की मर्यादा का विधान है, जो स्वयं श्रावक की इच्छा पर निर्भर है। वह आवश्यकतानुसार पदार्थों का ग्रहण करे और अतिरिक्त या आवश्यकता से अधिक पदार्थ का समाज में वितरण कर दे। अपरिग्रही बनने के लिए परिग्रह के स्वरूप को समझना आवश्यक है। परिग्रह : लक्षण एवं परिभाषा परिग्रह शब्द 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'ग्रह' धातु में घञ् प्रत्यय लगने पर बना है, जिसका अर्थ है - पकड़ना, थामना, लेना, ग्रहण करना आदि। परिग्रह का निरुक्तपरक अर्थ करने पर इसकी दो प्रकार से व्याख्या की जा सकती है -- .
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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