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________________ 159 आदि न कर आत्म-संयम करना चाहिए। गृहस्थ के लिए भोजन बनाया जा सकता है, खरीदा भी जा सकता है परन्तु साधु ऐसे आहार को कभी नहीं लेता। अतः श्रावक का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने लिए बनाई वस्तु का कुछ अंश साधु को दान दे। यह पात्र-दान है, आत्मसंयम है। इस प्रकार श्रावक के बारह व्रत जहाँ वैयक्तिक विकास के हेतु बनते हैं, वहीं समाज और राष्ट्र भी इससे लाभान्वित होता है। 3. ग्यारह प्रतिमा श्रावक की साधना उत्तरोत्तर आत्मविकास की साधना है। वह आंशिकव्रत से पूर्णव्रत की ओर गति करता है अतः वह साधना की अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। बारह व्रतों की साधना का अभ्यास पुष्ट होने पर वह उससे आगे की साधना के लिए अग्रसर होता है, उसे प्रतिमा कहते हैं। प्रतिमा के प्रकार प्रतिमा का अर्थ है-प्रतिज्ञा विशेष, नियम विशेष, व्रत विशेष। यह श्रावक के द्वारा मृहस्थ अवस्था में की जाने वाली साधना की विशेष भूमिकाएँ हैं। जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति करता है। प्रतिमाएँ ग्यारह हैं, जो 'निम्नलिखित हैं 1. दर्शन प्रतिमा, . 2. व्रत प्रतिमा, . 3. सामायिक प्रतिमा, 4. पौषध प्रतिमा, 5. कायोत्सर्ग प्रतिमा, 6. ब्रह्मचर्य प्रतिमा,
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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