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________________ 1. होते हुए नहीं कहना । 2. नहीं होते हुए हां कहना । 3. वस्तु कुछ है फिर भी उसे कुछ और बता देना । 4. हिंसाकारी, पापकारी और अप्रिय वचन बोलना । 137 उपर्युक्त चारों प्रकार का असत्य भाषण श्रमण के लिए वर्जित है। सत्य का संबंध केवल वाणी से नहीं होता अपितु अपना अभिप्राय जताने की हर चेष्टा से होता है। इस दृष्टि से सत्य के चार रूप होते हैं - शरीर की सरलता, मन की सरलता, वचन की सरलता और कथनी-करनी की समानता । श्रमण साधक को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसका विस्तृत विवेचन दसवैकालिक सूत्र में मिलता है। वहां कहा गया है – अप्रिय, अहितकारी, पीड़ाकारी और कटु सत्य का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे—काने को काना, अंधे को अंधा आदि नहीं कहना चाहिए । क्रोध, मान, माया, लोभ, भय आदि कारणों से व्यक्ति झूठ बोलता है। इन कारणों से बचने वाला असत्य भाषण से अपने आप बच जाता है। सत्य महाव्रत की साधना के लिए भाषा समिति का पूरा-पूरा विवेक होना चाहिए। भाषा की शुद्धि के लिए सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार – इन चार भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए । सत्य और व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए तथा असत्य और मिश्रभाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 3. अचौर्य महाव्रत - श्रमण का तीसरा महाव्रत है – अचौर्य । अचौर्य का मतलब है— चोरी नहीं करना, अदत्त वस्तु नहीं लेना । मालिक की आज्ञा के बिना, उसके दिये बिना श्रमण अपने आप कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता । बिना अनुमति एक तिनका भी ग्रहण करना चोरी है। किसी
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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