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________________ 134 में असमर्थ हो तो उसे श्रावकाचार का उपदेश देना चाहिए। श्रमण का आचार महाव्रत की साधना है तथा श्रावक का आचार अणुव्रत की साधना है। जिनमें महाव्रतों का पालन करने की क्षमता हो वे महाव्रतों का पालन करें तथा जो शारीरिक या मानसिक दृष्टि से अपने आपको असमर्थ पाते हैं, वे अणुव्रतों की साधना करें। अणुव्रतों की साधना करने वाला श्रावक भी इस सत्य को स्वीकर करता है कि मैं महाव्रतों का पालन करने में असमर्थ हूँ, इसलिए अगुव्रतों की साधना को स्वीकार कर रहा हूँ। अणुव्रतों की साधना करते हुए भी वह प्रतिदिन यह मनोरथ (इच्छा) करता है 'वह दिन कब आएगा जब मैं भी गृहस्थ धर्म से मुक्त हो, घरबार छोड़कर श्रमणधर्म को स्वीकार करूंगा।' इससे स्पष्ट है कि श्रमण परम्परा में श्रमण जीवन को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। श्रमण का तात्पर्य श्रमण का अर्थ पापकारी समस्त प्रवृत्तियों (कार्यों) से विरति है। श्रमण का तात्पर्य श्रमण शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा में श्रमण के लिए समण शब्द का प्रयोग होता है। 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-1. श्रमण, 2. समन और 3. शमन। श्रमण-श्रमण शब्द श्रम् धातु से बना है। इसका अर्थ है-श्रम-परिश्रम। जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिए परिश्रम करता है, वह श्रमण है। समन-समन शब्द के मूल में सम है। जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह श्रमण है। शमन-शमन शब्द का अर्थ है-अपनी वृत्तियों को शान्त रखना। जो इन्द्रिय और मन पर संयम रखता है, जिसके कषाय शान्त होते हैं, वह श्रमण है।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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