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________________ 108 है-गलत दृष्टिकोण। जिसकी तत्त्व-श्रद्धा विपरीत हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है और उसके गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। मिथ्यादृष्टि वाले प्राणी में जिस तत्त्व के प्रति विपरीत दृष्टिकोण है, उसे गुणस्थान नहीं कहा गया है किन्तु उसमें जो थोड़ा बहुत भी सही दृष्टिकोण है, उसे गुणस्थान कहा गया है। एक मिथ्यादृष्टिं व्यक्ति धर्म को अधर्म मान सकता है। पृथ्वी, पानी आदि जीवों को अजीव मान सकता है किन्तु स्वयं को तो जीव मानता है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में स्वयं को जीव मानने की जो सही समझ है, वह उसका गुणस्थान है। प्रश्न हो सकता है कि उसकी सही समझ को मिथ्यादृष्टि क्यों कहा जाता है? इसका कारण यही है कि व्यक्ति के ज्ञान का मूल्यांकन पात्र के भेद से किया जाता है। जिस प्रकार गंगा नदी का स्वच्छ एवं पवित्र जल किसी गन्दे पात्र में डाल देने पर उसे स्वच्छ एवं पवित्र नहीं माना जाता, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि की सही समझ भी मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्यादृष्टि कहलाती है। - - 2. सास्वादन-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व के किंचित् स्वाद-सहित होती है, उस व्यक्ति के गुणस्थान को सास्वादन-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। जब किसी सम्यक्दृष्टि व्यक्ति का दृष्टिकोण मिथ्या बनता है तो वह सम्यक्दृष्टि से च्युत होकर प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की ओर अग्रसर होता है। जब तक वह प्रथम गुणस्थान में नहीं पहुंच जाता तब तक उसकी मध्यवर्ती अवस्था का नाम सास्वादन सम्यक्दृष्टि गुणस्थान है। सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर संक्रमण काल में यह स्थिति रहती है। जैन दर्शन में इसे उदाहरण से समझाया गया, जैसे-वृक्ष से फल गिरता है और जब तक वह धरती का स्पर्श नहीं करता तो उस बीच की अवस्था के समान यह द्वितीय गुणस्थान है। दूसरा उदाहरण मिलता है कि जैसे किसी ने खीर का भोजन किया और तत्काल उसे वमन हो गया। वमन हो जाने से सारी खीर बाहर निकल गई
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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