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________________ 104 1. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। . 2. श्रुतज्ञान-द्रव्यश्रुत के अनुसार दूसरों को समझाने में समर्थ ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है। ... 3. अवधिज्ञान-मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए साक्षात् आत्मा के द्वारा साक्षात् पदार्थ का ज्ञान करना अवधिज्ञान है। यह रूपी पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय बनाता है। ___4. मनःपर्यवज्ञान-संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को (मन के पर्यायों को) जानने वाले ज्ञान को मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। ___5. केवलज्ञान-ज्ञानावरण कर्म का निःशेष रूप से क्षय हो जाने पर जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी कालिक सब वस्तुएँ (समस्त पर्यायों सहित) युगपत् अर्थात् एक साथ जानी जाती हैं, उसे केवलज्ञान कहते हैं। स्वाध्याय भी ज्ञान का ही एक अंग है। स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं। वे ज्ञान-साधना के पाँच उपाय हैं 1. वाचना-श्रुत का अध्ययन, अध्यापन करना। 2. पृच्छना-अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना। ___ 3. परिवर्तना-परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए बार-बार दोहराना। 4. अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिरविषय पर चिन्तन करना। 5. धर्मकथा-स्थिरीकृत और चिन्तित विषय का उपदेश देना। अध्यात्म विषयक चर्चाएँ करना।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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