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________________ दूसरेका उपकार करना क्या है, मानो ! अपनी आत्माका उपकार करना है; परोपकार, स्वोपकार से कोई जुदा नहीं है, परोपकारके. पेटमें, स्वोपकार कायम रहता है, धर्मात्मा महानुभावोंकी समस्त प्रवृत्तियाँ, परोपकारसे भरी रहती हैं, महात्माओंके शरीरके समस्त प्रदेश, कुट कुट कर परोपकार बुद्धिसे, ऐसे अटूट भरे होते हैं, मानो ! कि उनके शरीर, परोपकार रूप ही परमाणुओंसे बने हुए न हों। एक परोपकार संसार संबंधी किया जाता है, दूसरा आत्मश्रेयसंबंधी। इनमें आत्मश्रेय संबंधी परोपकार करनेवाले संत महात्मा, थोडे हैं । समस्त मानवजातिका, यह फर्ज है, कि आत्मश्रेयसंबंधीउपकार पानेकी प्यास रक्खा करें, और ऐसा उपकार करनेवाले महास्माओंकी तलाशमें फिरते रहें, यही परोपकार, वास्तबमें परोपकार है, इसी परोपकारसे, परोपकार करनेवाला, और परोपकार पानेवाला पुरुष, संसार बन्धनको, ढीला कर देता है। ऋषि-महात्मा लोग, तरह तरहकी घटना युक्त जो उपदेशधारा वर्षाते हैं, और अच्छे अच्छे धर्मशास्त्र बनाते हैं, सो, लोगोंको धार्मिक-उपकार करने के लिये, भूख, प्यास, अथवा जहर वगैरहसे मरते हुए आदमीको बाहरके प्राण देनेवाले, बहुतसे प्रयोग दुनियाँमें मौजूद हैं, अगर न भी हों, तो भी क्या हुआ, मरता हुआ आदमी मरकरके एकदम भस्मसात् लो नहीं होगा, अर्थात् उसकी आत्मा, एकदम नष्ट तो नहीं होगी, मर कर-एक घरको छोड, स्वर्य, मानव, तिर्यंच, अथवा अन्यत्र नया घर स्थापेमा, मगर जिसके भाव प्राण नष्ट होजाते हों, अर्थात् जिसकी आत्माकी वास्तविक ज्ञान, संयम शील बगैरह संपदाएँ खाक हो जाती हों, यानी धर्मसे परिभ्रष्ट हो कर, अधर्मका अनुचर बना हुआ जो आदमी, भयानक भव जंगलमें भटक रहा
SR No.022484
Book TitleNyayashiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherVidyavijay Printing Press
Publication Year
Total Pages48
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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