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________________ २४ न्याय-शिक्षा । तब ही वह शब्द, उस अर्थका वाचक हो सकता है। ऐसा मानता है। जैसे-पुरंदर शब्द, पुरके दारण करनेकी क्रियामें परिणत ही हुए इन्द्रको कह सकता है । इस नयके हिसाबसे समस्त शब्द (जाति शब्द, गुण शब्द वगैरह) क्रिया शब्द हैं । अतः क्रिया परिणत ही स्वार्थको कहने वाले शब्दको, यह नय स्वीकारता है। ये सब नय, यद्यपि पृथक् पृथक् विषय पर निर्भर हैं , अतः परस्पर विरोधी भी कहला सकते हैं, मगर जैनेन्द्र आगम रूपी महाराजाधिराजके आगे, युद्ध में हारे हुए विपक्षी राजाओंकी तरह परस्पर मिलझुलकर रहते हैं । अतएव सापेक्ष रीतिसे सब नयोंका सत्कार करने वाला शास्त्र-प्रवचन-शासन, यथार्थ-निर्वाध-उपादेय कहाता है। और एक एक नयको पकड कर चले हुए मजहब, यथार्थ नहीं कहे जा सकते । तथाहि काणाद और गोतमीय शासन, नैगम नय, और सांख्य प्रवचन तथा अद्वैतमत, संग्रहनय, और बौद्धमत, ऋजुसूत्रनय, एवं शब्दब्रह्मवाद, शब्दनयको पकड कर प्रकट हुआ है । और जैन प्रवचन सभी नयोंको समान दृष्टिसे देखता हुआ-सापेक्ष रीतिसे सत्कारता हुआ, सदा जयश्रीका स्थानही बना रहता है। नयका भी वाक्य, प्रमाण की तरह, अपने विषयमें प्रवतता हुआ, विधि और निषेधसे सप्तभंगीको अनुसरता है। इसका भी विचार, प्रमाणकी सप्तभंगीके बराबर करना चाहिये, क्योंकि नयकी सप्तभंगीमें भी, प्रति भंग, 'स्यात्' पद, और एव
SR No.022484
Book TitleNyayashiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherVidyavijay Printing Press
Publication Year
Total Pages48
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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