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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण। जब ऐसी ही बात हुई तोसोचो ! मुक्ति चीज कहां रही। नित्य, आत्यंतिक दुःख क्षयरूप मुक्ति पाकरके भी यदि संसारमें गिरना हुआ, तो नित्य, आत्यंतिक दुःख क्षय कहां रहा है। जैसे वन्ध्या स्त्रीको, पुत्र पैदा होनेके कारण न होनेसे पुत्र पैदा नहीं हो सकता, वैसे ईश्वरको संसारमें अवतार लेनेका कारण-कर्म बिलकुल न रहनेसे क्योंकर ईश्वर संसारी बन सकता है ? । जहां बीज ही समूल जल गया, वहां अंकुर पैदा होने की बात ही क्या करनी ? । ईश्वरको भी कर्मरूपी बीज, मूलसे अगर दग्ध ही होगया है, तो फिर उसका संसारमें आना कौन बुद्धिमान स्वीकारेगा? । इसीसे यह भी बात खुल जाती है कि परमेश्वर एक ही नित्यमुक्त नहीं है, बल्कि विशिष्टतम आत्मबल जागरित होनेपर अनेक भी ईश्वर हो सकते हैं । जब कर्म क्षयद्वारा ईश्वरपना प्राप्त होना न्याय्य है, तो फिर ईश्वरको नित्यमुक्त कैसे कहा जाय ? मुक्त शब्दहीका यह रहस्य है कि 'काँसे बिलकुल छुट गया, फिर भी मुक्त शब्दके साथ जो नित्य शब्द लगाना है, सो माता शब्दके साथ, मानो ! वंध्या शब्द ही लगाना है । वास्तवमें वही मुक्त हो सकता है, जोकि पहले कभी न कभी बन्धनसे बद्ध रहा हो। अगर यह बात न मानी जाय, तो आकाशको भी, कहनेवाले लोग नित्यमुक्त क्यों नहीं कहेंगे। जैन सिद्धान्तके अनुसार इस भरतक्षेत्रमें प्रति उत्सर्पिणी और प्रति अवसर्पिणी काल, तीर्थंकरदेव चौईस चौईस होते हैं, और सामान्य केवलियोंका तो कोई नियम नहीं, कोटीसे भी अधिक आधिक होते हैं। मगर ईश्वर शन्दका व्यवहार
SR No.022484
Book TitleNyayashiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherVidyavijay Printing Press
Publication Year
Total Pages48
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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