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________________ भूमिका. महाशय! यह आप्तपरीक्षास्तोत्र जिन्होंने बनाया वे पहिले वेदमतावलम्बी पात्रकेशरी नामके नैयायिक विद्वान् थे. इनके अनेक शिष्य थे एक दिन किसी नगर में जा रहे थे. जैनमंदिरके बाहर कोई जैनी समन्तभद्रस्वामीविरचित तत्वार्थसूत्रके गन्धहस्तमहाभाष्यका मङ्गलाचरणस्वरूप आप्तमीमांसा. स्तोत्रका ( देवगमास्तोत्रका) पाठकर रहा था. दैवयोगसे उसके दो श्लोक जो कि उनके मतके खंडन करनेवाले थे, सुनकर चौक पड़े और खड़े होकर उस स्तोत्रको फिरसे आद्योपान्त सुना. सुनकर उस जैनीसे बोले कि इस स्तोत्रकी कोई टीका भी है कि नहीं? तब उस जैनीने उसी वक्त मंदिरमेसे भट्टाकलंकदेवविरचित अष्टशती नामकी टीका लाकर दिखाई. पात्रकेशरीने उसी वक्त उसको आद्योपान्त पढकर चित्तमें जैनमतावलम्बी होनेकी इच्छा कर ली. परन्तु उस समय अनुमानके लक्षणमें संदेह रह गया था. उस संदेह सहितही अपने स्थानपर चले गये. रात्रिको भलेप्रकार विचार करकें जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंकी शरण होनेका संकल्प कर लिया परन्तु वह सन्देह नहिं गया. तब रात्रिको जिनशासन देवतावोंने स्वप्नमें सूचित किया कि "प्रातःकाल ही नब तुम जिनमंदिरमें दर्शन करनेको जावोगे तो तुमको पार्श्वनाथ भगवान्की मूर्तिके छत्रमय फनपर अनुमानविषयक संदेह निवारक उत्तर मिलेगा" सो प्रातःकाल ही दर्शन करते समय नीचें लिखा श्लोक पात्रकेशरीके दृष्टिगत हुवा. अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥१॥ फिर क्या था सर्व सन्देह दूर हो गये और शुद्धान्तःकरणसे परम श्रद्धास्पद जैन होकर भक्तिपूर्वक भगवान्की स्तुति करके नमस्कार पूजनादि किया. शेषमें जैनन्यायसमुद्र में अवगाहन करके जैनमतके परम पूजनीय एक दिग्गज विद्यानन्दि नामके आचार्यश्रेष्ठ हो गये. उसी समय यह 'आप्तपरीक्षा' नामका स्तोत्र बनाया तथा अनेक शास्त्र रचे. जिनमेंसे 'आप्तमीमांसा' पर ८ हजार श्लोकोंमें अष्टसहस्री नामकी टीका और तत्त्वार्थसूत्रपर शोलहहजार श्लोकोंमें श्लोकवार्तिकालंकार नामका भाष्य रचा है. सो अभी उपलब्ध है. इसके शिवाय इस आप्तपरीक्षाको अतिशय क्लिष्ट देखकर इसपर भी आपहीने ३,००० श्लोकोंमें टीका रची है, सो नैयायिक विद्वानोंके देखने योग्य है. परन्तु उसके संशोधन करनेवाले विद्वानोंकी अप्राप्तिके कारण जैनी विद्वानों और जैनी विद्यार्थियोंको प्रतिदिन पाठ करनेके लिये हमने यह मूलमात्र ही छपाया है. इसके भी शोधनेका पूरा साधन न होनेके कारण अनेक अशुद्धियें रह गई होंगी सो पाठकगण टीका देखकर शुद्ध कर लें. ता० ३-६-१९०४ ईखी. } प्रकाशक.
SR No.022476
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Digambar Jain
PublisherLalaram Digambar Jain
Publication Year1904
Total Pages16
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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