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________________ ७४ उपा. यशोविजयरचिते एवमेभिः श्रुतोपदर्शितनिदर्शनैरेतेषां यथाक्रमं विशुद्धत्वमवसेयम् ॥ अर्थतेषां लक्षणानि वक्ष्यामः ॥ "निगमेषु भवोऽध्यवसायविशेषो नैगमः" । तद्भवत्वं च लोकप्रसिद्धार्थीपगन्तृत्वम् , लोकप्रसिद्धिश्च सामान्य विशेषाद्युभयोपगमेन निर्वहति। हैं, किन्तु देवदत्त का वास देवदत्त की अपनी आत्मा में ही मानते हैं क्योंकि देवदत्त का तादात्म्यसम्बन्ध देवदत्त-आत्मा में रहता है। तादात्म्य से अतिरिक्त संयोग आदि संबन्ध को ये नय नहीं स्वीकार करते हैं। तादात्म्य संबन्ध तो देवदत्त का देवदत्त के साथ ही सम्भवित है, आकाशप्रदेश वा गृहकोणादि के साथ देवदत्त का तादात्म्य संबन्ध नहीं हो सकता है, इसलिए देवदत्त का वास अन्यत्र न मानने में इन नयों का अभिप्राय है। ये नय कहते हैं कि अन्य का वास अन्यत्र हो ही नहीं सकता है, क्योंकि अन्य के साथ अन्य का तादात्म्य संबन्ध नहीं रहता है, तादात्म्य से इतर संबन्ध इनके मत में है ही नहीं । असम्बद्ध वस्तुद्वय का आधाराधेयभाव नहीं होता है। इसलिए आकाशप्रदेश गृहकोणादि में देवदत्त का वास मानना सङ्गत नहीं है। यदि संबन्ध के बिना भी विवक्षित आकाशप्रदेश या गृहकोणादि में देवदत्त का वास माना जाय तो विवक्षित आकाशप्रदेश से भिन्न आकाशप्रदेश में भी देवदत्त के वास का अतिप्रसङ्ग खडा होगा । तथा गृहकोण से भिन्न गृहभाग में भी देवदत्त के वास का प्रसङ्ग हो जायगा, क्योंकि सम्बन्ध का अभाव सर्वत्र समान होने से कोई नियामक नहीं है कि जिसके बल से विवक्षित आकाशप्रदेशों में ही देवदत्त का वास माना जाय और तद्भिन्न प्रदेशो में न माना जाय । ऐसे ही गृहकोण में ही देवदत्त का वास माना जाय और अन्य गृहभाग में न माना जाय इसका भी कोई नियामक नहीं है । आशय यह है कि सम्बन्ध ही आधाराधेयभाव का नियामक होता है, वह सम्बन्ध तादात्म्य से अतिरिक्त तो है ही नहीं, तादात्म्य सम्बन्ध तो देवदत्त के साथ देवदत्त का ही है, अन्य के साथ नहीं है । इस हेतु से देवदत्त के साथ ही आधाराधेयभाव मानना युक्त है, अन्य के साथ देवदत्त का आधाराधेयभाव मानना युक्तिसङ्गत नहीं है। (एवमेभिरिति) नैगमादिनयों में क्रमिक विशुद्धता प्रदर्शित करने के लिए प्रदेश, प्रस्थक और वसति इन तीन दृष्टान्तों का उपक्रम पूर्व में किया गया है और इन तीनों दृष्टान्तों का अवलंबन करके इन तीन प्रकारों से क्रमिक विशुद्धि को ग्रन्थकार ने जो बताया है उसका उपसंहार प्रकृत ग्रन्थ से करते हैं । नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत, इन सात नयों की अपेक्षा से उत्तरोत्तर नय में क्रमिक विशुद्धि का ज्ञान इन तीनों दृष्टान्तों के अवलंबन से पूर्व में प्रदर्शित रीति के अनुसार करना चाहिए-इसी रीति से क्रमिक विशुद्धि का ज्ञान नैगममादि नयों में हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है । कारण, यह क्रमिक विशुद्धता बहुत सूक्ष्म है और जटिल भी है । 1: नयों की विशुद्धता के जिज्ञासु लोगों को अन्य रीति का अवलंबन न कर के इन तीन दृष्टान्तों का अनुसरण करना ही विशुद्धिज्ञान के लिए अधिक उपकारी हो सकता है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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