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________________ धूमिल नहीं होता ।” इस प्रकार, तात्पर्य को कालिमा न लगे इस प्रकार की नयावलम्बि प्रबल चर्चा यह जैन शासन का भूषण है दूषण नहीं है । इसीलिये उपमितिकार ने भी कहा है-“निर्नष्टममकारास्ते विवाद नव कुर्वते । अथ कुर्युस्ततस्तेभ्यो दातव्यवैकवाक्यता ॥ अर्थात्-जिन का ममकार (और अहंकार भी) नष्टप्रायः हो गया है वे कभी विवाद नहीं करते हैं (चर्चा जरूर करते हैं)। यदि वे विवाद करने लगे तो उन की प्ररूपणाओं में अवश्य एकवाक्यता लाने का प्रयास करना चाहिये ।" सारांश, कहीं भी शास्त्रों के तात्पर्य को धूमिल नहीं करना चाहिये। यतः नयवाद भी नयगर्भित ही है, इसीलिये नयों का भी कोई एक ही विभाग नहीं है। अन्य अन्य आचार्यों ने भिन्न भिन्न स्थान में उन का भिन्न भिन्न विभाग दिखाया है । जैसे नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र और शब्द, एसा पाँच नय का विभाग श्री उमास्वातिजी ने कहा है। संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्दसमभिरूढ और एवंभूत-ऐसा छः नयों का विभाग सम्मतिकार ने दिखाया है। आवश्यकादि में नेगमादि सात नय का विभाग है। तदुपरांत द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, अर्थनय-शब्दनय, निश्चयनय-व्यवहारनय, ज्ञाननय-क्रियानय. शद्धनय-अशुद्धनय इन्यादि अनेक प्रकार का नयविभाग उपलब्ध होता है । श्री नयचक्र में बारह प्रकार का नयविभाग भी उपलब्ध है । सात नय का विभाग ही सर्वाधिक प्रसिद्ध होने से इस नयरहस्य ग्रन्थ में सात नयों का ही विवरण किया गया है। नयों का स्पष्टीकरण करने वाले प्राचीन अनेक ग्रन्थशास्त्र जनशासन में आज भी उपलब्ध है। सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, भगवती सूत्र आदि अनेक अंगसूत्रों में नयों का सूत्रपात देखा जा सकता है। तदुपरांत, अनुयोगद्वारसूत्र, सम्मतिसूत्र, द्वादशारनयचक्र, न्यायावतार, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, शास्त्रवार्तासमुच्चय, आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, जैनतर्कवार्तिक, स्याद्वादम जरी, तत्त्वार्थसूत्र. उस का भाष्य और व्याख्याएँ, बृहत्कल्पसूत्र, निशीथचूर्णि, नयकर्णिका इत्यादि अनेक छोटे बडे शास्त्रों में नयवाद या अनेकान्तवाद का भली भाँति परिचय दिया गया है। यह तो श्वेताम्बर शास्त्रों की बात हुई। दिगम्बर परम्परा के भी अनेक ग्रन्थों मे नयों की चर्चा उपलब्ध है। अनेक प्राचीन ग्रन्थ विद्यमान होते हुए भी नय के विषय को नवीनशैली से हृदयंगम कराने के लिये श्रीमद उपा शायजी महाराज ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है । नयप्रदीप यह अति छोटा ग्रन्थ प्राथमिक अभ्यासीयों के लिये अतीव व्युत्पादक है । उस से कुछ अधिक जानकारी के लिये जैन तर्क परिभाषा अच्छा ग्रन्थ है। उस से भी अधिक जानकारी के लिये यह 'नयरहस्य' ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है । उस से भी अधिक जानकारी के लिये 'अनेकान्तव्यवस्था' ग्रन्थ बहुत सुंदर है । 'नयोपदेश' में उपाध्यायजी की नयसम्बन्धी चरम प्रतिभा का तेज दिखाई देता है । तत्त्वार्थसूत्र प्रथम अध्याय की व्याख्या में ३५ वे सूत्र में भी श्री यशोविजय महाराज ने पर्याप्त विवेचन किया है । इस प्रकार अनेक ग्रन्थों में अनेक रीति से श्रीमद ने नयक्षेत्र को विशदरूप से प्रकाशित किया है। 'नयरहस्य' के इस संस्करण में, उपाध्यायजी के स्वहस्तलिखित आदर्श के अनुसार, पूर्व मुद्रितग्रन्थ की अपेक्षा अनेक स्थान में नये संस्कार-परिष्कार किये गये हैं, फलतः पूर्व मुद्रित संस्करणों में अशुद्धपाठमद्रण मालक असंगतिओं के कारण अभ्यासीवर्ग को जो कठिनाईयाँ महसूस होती थी उस का महदंश में निराकरण हो गया है । पाठकवर्ग पूर्वमुद्रित संस्करण को इस के साथ मिलायेगे तो नये संस्कारों का अनायास पता लगा सकेंगे। 'नयरहस्य' ग्रंथ का अक्षरदेह नयप्रदीप जैसा लघु नहीं है और नयोपदेश जैसा महान् भी नहीं किंतु नया है। इस में केवल नयों का रहस्य यानी उस का स्वरूप, उस की मान्यता और अपनी मान्यता की समर्थक कछ युक्तियाँ ही प्रतिपादित है । इसलिये मध्यमरुचि वर्ग के लिये यही ग्रन्थ उपादेय होगा।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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