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________________ उपा. यशोविजय रचित रीति से प्रत्येक प्रदेश के पाँच पाँच प्रकार कथित होते हैं, तब प्रदेश के पचीस प्रकार अनायास सिद्ध होने से प्रदेश में पञ्चविंशतिप्रकारत्व का प्रसंग आ जाता है। इस आपत्ति के कारण ‘पञ्चविध प्रदेश है' यह कहना ठीक नहीं है। यदि यहाँ ऐसा बचाव किया जाय कि-'प्रदेशत्वरूप से सामान्यतः प्रदेश में पञ्चविधत्व का अन्वय हम करेंगे, तब तो प्रदेशसामान्य में पञ्चविधत्व का ही विधान होगा, और पञ्चविंशतिविधत्व का प्रतंग भी नहीं आयेगा।' - तो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि विशेष से भिन्न सामान्य की सिद्धि ही नहीं है। अर्थात् धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिकाय प्रदेश इत्यादि भिन्न भिन्न प्रदेशरूप विशेष से अतिरिक्त कोई प्रदेशसामान्य नाम की वस्तु ही नहीं है। व्यक्ति से अतिरिक्त जाति का स्वीकार जैसे तार्किकों के सिद्धान्त में है, वसे स्याद्वाद में नहीं है। इसलिए प्रदेशत्वरूपेण प्रदेशसामान्य में पञ्चविधत्व का अन्वय करने की बात सिद्धान्तविरुद्ध होने से असंगत है और जब विशेष से अतिरिक्त सामान्य असिद्ध है तब 'प्रदेशः पञ्चविधः' इस वाक्य में प्रदेश शब्द से धर्मास्तिकायादि प्रत्येक प्रदेश का ग्रहण होने पर और उस प्रत्येक प्रदेश में पञ्चविधत्व का अन्वय करने से पञ्चविंशतिविधत्व का प्रसंग दुर्निवार होगा। [पञ्चविधत्व का निदोष निर्वचन अशक्य ] "किञ्च" इत्यादि ग्रन्थ से प्रदेश में पञ्चविधत्व क्या है ऐसी शंका उठाकर 'पाँच प्रकार का प्रदेश है' इस पक्ष में ऋजुसूत्र दूसरा भी दोष देता है, वह यह है कि पंचविधत्व का व्युत्पत्तिविशेष से विशेष निर्वचन करके प्रदेश में उसका अन्वय करना चाहे, तो भी वह दोषमुक्त नहीं हो सकता है। जैसे-पंचविधत्व का पंचप्रकारत्व यह अर्थ किया जाय तो यह भी प्रस्तुत में सम्भव नहीं है क्योंकि इसमें प्रकार शब्द से कैसा अर्थ ग्रहण किया जाय इस शंका का उदय होता है । "प्रकार” शब्द के तीन अर्थ सम्भवित हैं-संख्या, बुद्धिविशेषविषयत्व और भेद । परन्तु प्रस्तुत में इन तीनों अर्थ में दोष उपस्थित होते हैं । जैसे “प्रकार" शब्द का संख्या अर्थ लेना यह प्रथम पक्ष है, इस पक्ष में 'पाँच है प्रकार अर्थात् संख्या जिसमें' ऐसा बहुव्रीहि समास करके पञ्चप्रकारत्व का अर्थ पञ्चसंख्यत्व निकलता है। पंचसंख्यत्व का अन्वय प्रदेश के साथ करें, तो यह संगत नहीं है, क्योंकि प्रदेशों में पञ्चत्वसंख्या का अवधारण नहीं हो सकता है, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और स्कन्ध इनमें से चतुष्टय का प्रदेश असंख्यात हैं (अर्थात्- जिसको हम प्रसिद्ध संख्या से बता नहीं सकते) और स्कन्ध के प्रदेश अनन्त हैं। इसलिए सामान्यरूप से प्रदेश तो अनन्त ही है। तब इस अनन्त प्रदेशों में पञ्चत्व संख्या का अन्वय कसे हो सकता है ? दसरा पक्ष"बुद्धिविशेषविषयत्व" है, यह पक्ष भी संगत नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में 'प्रकार' पद से बुद्धिविशेषविषय त्वरूप अर्थ का ग्रहण यदि किया जाय तो पञ्चप्रकारत्व शब्द का पञ्चबुद्धिविशेषविषयत्व अर्थ होता है। इसी का भावार्थ उपाध्यायजी ने पञ्चप्रकारकबुद्धिविषयत्व ऐसा किया है। इस में 'पञ्च' शब्द का पञ्चत्वसंख्या अर्थ है, इसलिए पञ्चत्वप्रकारक बुद्धि विशेष ऐसा अर्थ सिद्ध होगा। इस तरह के पञ्चप्रकारत्व का प्रदेश में अन्वय नहीं हो सकता है क्योंकि इस तरह के पञ्चप्रकारत्व का प्रदेश में अन्वय
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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