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________________ नयरहस्य [विप्रतिपत्तित्व के साधक हेतुओं का निराकरण] अत्र चेत्यादि-यहाँ नगमादि अध्यवसायों में विप्रतिपत्तित्व सिद्ध करने के लिए तीन हेतुओं का प्रयोग करना पूर्वपक्षी को अपेक्षित है । जैसे-जगमादयः अध्यवसायाः विप्रतिपत्तिरूपाः, विरुद्धधर्मग्राहित्वात् , अंशग्राहित्वात , प्रमितिलक्षण्याच्च । इन तीनों हेतुओं में से जो प्रथम हेतु विरुद्धधर्मग्राहित्वरूप है, उस की असिद्धि का प्रदर्शन प्रथम दृष्टान्त से किया गया है । एकत्व-द्वित्व-त्रित्व-चतुष्ट्व-पञ्चत्व-षट्त्व अध्यवसायों में आपाततः विरुद्धधर्मग्राहित्य यद्यपि भासता है तो भी एकत्व-द्वित्वादि धर्म वास्तविकरूप से विरुद्ध नहीं है । कारण, वे एकत्व-द्वित्वादि धर्म आपेक्षिक धर्म है । आपेक्षिक धर्मा में वास्तविकरूप से विरोध नहीं होता । इसलिए एकत्व-द्वित्वादि अध्यवसायों में जैसेविरुद्धधर्मग्राहित्व नहीं है, वसे ही नगमादि अध्यवसायों में भी विरुद्धधर्मग्राहित्व नहीं है । अतः नैगमादि अध्यवसायरूप पक्ष में विरुद्धधर्मग्राहित्वरूप हेतु के न रहने से यह हेतु स्वरूपासिद्धि दोष से ग्रस्त है, पक्ष में हेतु का न रहना ही स्वरूपाऽसिद्धि दोष का लक्षण है । इस कारण से विरुद्धधर्मग्राहित्वरूप हेतु द्वारा नैगमादि अध्यवसायों में विप्रतिपत्तित्वरूप साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है, क्योंकि दोषयुक्त हेतु अपने साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ होते हैं, इसलिए यह अनुमान असत् अनुमान है। इस असत् अनुमान से नयों में विप्रतिपत्तित्व का साधन जो पूर्वपक्षी को अभीष्ट है, वह नहीं हो सकता है। इस तात्पर्य से प्रथम दृष्टान्त का प्रदर्शन उपाध्यायजी ने किया है। ऐसे ही नयों में विप्रतिपत्तित्व सिद्ध करने के लिए जो अंशग्राहित्व हेतु पूर्वपक्षी ने लगाया है, वह हेतु भी व्यभिचार दोष से ग्रस्त है। क्योंकि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि से जो अंश गृहीत होते हैं, वे अंश भी परस्परविरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि एक वस्तु में वे सभी अंश विद्यमान हैं-यह प्रमाण से सिद्ध होता है। तब विप्रतिपत्तित्वरूप साध्य जहाँ नहीं है, ऐसे मतिज्ञानादि ज्ञानों में अंशग्राहित्वरूप हेतु रहता है इसलिए यह हेतु व्यभिचार दोष से युक्त है । साध्य जहाँ नहीं रहता, वहाँ हेतु का रहना ही व्यभिचार दोष है। व्यभिचारी हेतु हेत्वाभास होने से साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता है । अतः अशग्राहित्वरूप असत् हेतु से नयरूप पक्ष में विप्रतिपत्तिरूपता की सिद्धि जो पूर्वपक्षी को अभीष्ट है, वह नहीं हो सकती है । इस आशय से उपाध्याय जी ने दूसरा दृष्टान्त दिया है। ___पूर्वपक्षी ने नयों में विप्रतिपत्तित्व सिद्ध करने के लिए जो प्रमितिविलक्षणत्वरूप तीसरा हेतु ग्रहण किया है, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ भी असिद्धि दोष है । एक वस्तु में अपने अपने नियत विषयों को ग्रहण करानेवाले प्रत्यक्षादि प्रमाण ज्ञानों में प्रमितिविलक्षणत्वरूप हेतु जैसे नहीं रहता है, वसे ही नगमादिः अध्यवसाय में भी प्रमितिविलक्षणत्वरूप हेतु नहीं है । इसलिए पक्ष में हेतु का अभाव होने से प्रमितिविलक्षणत्वरूप हेतु स्वरूपाऽसिद्धि दोष से युक्त है, इस कारण से यह हेतु भी विप्रतिपत्तिरूपता की सिद्धि करने में असमर्थ है । अतः इस हेतु से पूर्वपक्षी का मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता । किन्तु हमें जो इष्ट है यथार्थत्व वही सिद्ध हो जाता है । इस
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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