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________________ नयरहस्य निर्वतकत्वमनिवर्तमाननिश्चितस्वाभिप्रायकत्वम् । निर्भासकत्वं शृङ्गग्राहिकया वस्त्वंशज्ञापकत्वम् । उपलम्भकत्वं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमापेक्षसूक्ष्मार्थावगाहित्वम् । इनमें से किसी एक धर्म अनित्यत्व अथवा नित्यत्व जिसमें प्रकार है ऐसा ज्ञान ‘अनित्यो घटः' अथवा 'नित्यो घटः' ऐसा ज्ञान, उसका जनक अध्यवसाय विशेष नय कहलाता है । निर्वर्तकत्वभित्यादि-अपने जिस अभिप्राय से अध्यवसाय विशेष उत्पन्न होते हैं उस निश्चित अभिप्राय की निवृत्ति जहाँ न हो एसे अध्यवसाय का नय पद से व्यवहार किया जाता है । यहाँ नय शब्द की 'नयन्ते इति नया:' इस व्युत्पत्ति में नयन्ते पद से जो वर्तमान अर्थ प्रतीत होता है उस को इस लक्षण में प्रविष्ट अनिवर्तमान पद से सूचित किया गया है । तथा निर्वर्तयन्ति इति निर्वर्तकाः इस व्युत्पत्ति में निर्वतयन्ति इस पद में ति पद से जो वर्तमान अर्थ प्रतीत होता है उसका सूचक अनिवर्तमान पद है । अनिवर्तमानः निश्चित: स्वः अभिप्रायो यत्र-यह लक्षणवाक्य का विग्रह है। यहाँ स्वपद स्वकीय अर्थ का बोधक है। अभिप्राय और अध्यवसाय विशेष में जन्यजनकभाव सम्बन्ध है । अध्यवसाय का जनक अभिप्राय है इस लिए अध्यवसाय का स्वकीय अभिप्राय बनता है। इस हेतु से जनकतासम्बन्ध से अभिप्राय अध्यवसाय का स्वकीय बनता है अर्थात् स्वजनक बनता है-यह अर्थ स्वपद से सूचित होता है । निर्भासका-निर्भासयन्ति विशेषेण दीपयन्ति वस्त्वंशे ये ते निर्भासकाः-जो वस्तु के अंश विशेष को शृङ्गग्राहिका न्याय से अर्थात् विशेष रूप से बतावे वह निर्भासक कहलाता है । नय शब्दगत नी धातु का दीप्ति अर्थ मानकर यह लक्षण बनाया गया है। शङ्गग्राहिका न्याय यह है कि अनेक गोपाल अपनी अपनी गायों को एक मैदान में चरने के लिए छोड़ देते हैं । सादृश्य होने के कारण किस गोपालकी कौन कौन धेनु हैं इसका निश्चय साधारणतया सभी को नहीं होता है, जिसकी जो गौ होती है वह गोपाल अपनी अपनी गायों के विशेष को जानते होते हैं। इसलिए मैदान से अपने अपने गोष्ठ जाने के समय अपनी अपनी गायों का शङ पकड कर उस दिशा में ले जाते हैं जिस दिशा में उनका गोष्ठ होता है । शङ्गं गृह्यते यस्यां क्रियायां सा शङ्गग्राहिका इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस क्रिया में शृङ्ग का ग्रहण करना आवश्यक होता है उस क्रिया को शङ्गग्राहिका या शकग्राहिकान्याय कहते हैं । इस न्याय से अनेक अंशवाली वस्तु के किसी अंशविशेष का ज्ञान जिस से हो उसको निर्भासक कहते हैं-यह भी नय का ही एक लक्षण है। ____ 'उपलम्भकत्व' इत्यादि-नय शब्दगत नी धातु का उपलब्धि अर्थ मानकर यह लक्षण किया गया है । 'उपलम्भयन्ति ये ते उपलम्भकाः' ऐसा इसका विग्रहवाक्य है। जो उपलम्भ करावे वह उपलम्भक कहलाता है। इस लक्षण में क्षयोपशम का विशेषण 'विशिष्ट' पद और 'प्रति' पद दिया गया है। विशिष्ट पद से क्षयोपशम में अन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से कुछ विशेष का सूचन होता है। प्रति शब्द सन्निकर्ष का बाधक है जो अति.
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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