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________________ नयरहस्य मन्दारद्रुमपल्लवेषु करभा किं नो भृशं द्वेषिणो ये चास्वाद विदस्तदेकरसिकाः श्लाध्यास्त एव क्षितौ ॥२॥ कृत्वा प्रकरणमेतत् प्रवचनभक्त्या यदर्जितं सुकृतम् । रागद्वेषविरहतस्ततोऽस्तु कल्याणसम्प्राप्तिः ॥३॥ है और सज्जनों के लिए नमस्कार के द्वारा प्रशंसा का प्रदर्शन किया है । ग्रन्थकार का कहना यह है कि 'दोषो ह्यविद्यमानोऽपि तच्चित्तानां प्रकाशते" इस उक्ति के अनुसार दुबुद्धि लोग ग्रन्थ के अभिप्राय को जाने बिना ग्रन्थ में दूषण निकालने का ही प्रयास करते हैं क्योंकि उन की वासना ही ऐसी होती है । अतः उन के विषय में मुझे कुछ भी कहना नहीं है । किन्तु, ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय को समझकर जो लोग आनन्दित होते हैं, वे चाहे हमारे सधर्मा हो या विधर्मा हो उन को हमारा नमस्कार है । मन्दारवृक्ष के पल्लवों में उष्ट्रों को क्या अधिक द्वेष नहीं रहता है ? रहता ही है, इसीलिए वे मन्दार पल्लवों को छोडकर कटु रस से युक्त निम्ब आदि के पल्लवों का भक्षण करते हैं, इस से लोक में उन की श्लाघा नहीं होती है क्या ? जो कोई मन्दारवृक्ष के पल्लवों का आस्वाद जानते हैं, वे तो उसी के रसिक होते हैं और वही पृथिवी पर प्रशंसनीय माने जाते हैं। इस कथन से दुर्जन के प्रति उपेक्षा और सज्जन के प्रति प्रशंसा अभिव्यक्त होती है ॥२॥ __ ग्रन्थकारों की यह भी एक शैली है कि ग्रन्थ के आदिभाग में या अन्तभाग में ग्रन्थनिर्माण के लिए स्वकीय प्रवृत्ति का कारण निर्दिष्ट कर देते हैं और ग्रन्थरचना के फल का भी निर्देश करते हैं तथा ग्रन्थ के लिये आशिर्वाद भी अभिव्यक्त करते हैं । इसी आशय से प्रस्तुत चरम पद्य का निर्माण प्रकृत ग्रन्थकार ने किया है, इन का कहना यह है कि "नयरहस्य प्रकरण' करने में कोई अन्य कारण नहीं है किन्तु जिनप्रवचन में अर्थात् जनशासन में मुझे भक्ति है वही इस ग्रन्थ के निर्माण में कारण है, अतः प्रवचन भक्ति के द्वारा इस प्रकरण को कर के जो सुकृत का उपार्जन मैं ने किया है, उस से रागद्वेषविलय द्वारा कल्याण की प्राप्ति इस ग्रन्थ के अध्येता और अध्यापक लोगों को होवे । इस कथन से प्रवचन भक्ति ग्रन्थनिर्माण का कारण सिद्ध होता है और मुख्य फल कल्याण की प्राप्ति तथा द्वारभूत फल रागद्वेष का विलय निश्चित होता है ॥३॥ नयरहस्यप्रकरण समाप्त मैथिल पण्डितवर्य-न्यायवेदान्ताचार्य-विद्वज्जनाग्रणी पण्डितमहोदय ---- श्री दुर्गानाथ झा कृत, मुनि श्री जयसुन्दर विजयपरिमार्जित, नयरहस्य हिन्दी भाषा विवरण समाप्त हुआ। जैन जयति शासनम्
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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