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________________ ૨૨૪ उपा. यशोविजयरचिते तेनेह क्रियमाणं नियमेन कृत', कृत तु भजनीयम् । किञ्चिदिह क्रियमाणमनुपरतक्रिय च भवेत्"] इस गाथा का अर्थ यह है कि जो क्रियमाण है, वह तो नियम से कृत ही कहा जाता है और जो कृत है वह दो प्रकार से है-क्रियमाणकृत और उपरतक्रियकृत । जिस काल में घटादि क्रिया की प्रवृत्ति होती है, उस काल में होनेवाला कृत क्रियमाणकृत है, क्योंकि घटादि घटक्रियाकाल में कृत है और कुछ अंश में क्रियमाण रहता है, इसलिए उस दशा में घट क्रियमाणकृत कहा जाता है । जिस काल में क्रिया की परिसमाप्ति हो जाती है, उस काल में घटादि कृत ही है क्योंकि चक से भी उतार लिया गया है और पाक से भी उतार लिया गया है, इसलिए कोई क्रिया जिस से घट बनता है, अब बाकी नहीं रह गयी है, किन्तु सभी क्रिया उपरत हो गयी है, उस काल में घटादि कार्य में शुद्ध कृतत्व है, क्रियमाणत्व उस में नहीं है । इस सिद्धान्त की सगति के लिए निश्चयवादी एक नियम बताते हैं कि--"सिद्धत्वविशिष्ट साध्यतारूप वर्तमानप्रत्ययार्थ जहाँ जहाँ रहता है, वहाँ वहाँ सिद्धत्व रहता ही है"। इस व्याप्ति से क्रियमाण कृत ही है, यह सिद्धान्त संगत होता है । जैसे-पाकभाजन में जल सयक्त तण्डुल हो, वहाँ अधःसन्तापन करने से तण्डुल कुछ अश में सिद्ध हो गया हो और कुछ अंश में सिद्ध होना बाकी है परन्तु पाचन क्रिया चलती है तो उस तण्डल में सिद्धत्वविशिष्ट साध्यता रहती है और वहाँ आंशिक सिद्धत्व तो रहता है, इसलिए यह व्याप्ति वहाँ घटती है । इस दृष्टान्त से क्रियमाणकृत यह विभाग निश्चित होता है । जब तण्डुल पक जाने के बाद नाचे उतार लिया जाता है, उस समय उस तण्डुल में शद्ध सिद्धता ही रहती है अर्थात् साध्यता से विरहित सिद्धता रहती है। जहाँ जहाँ शुद्ध सिद्धता रहती है वहाँ वहाँ सिद्धत्वविशिष्टसाध्यता रहती हो ऐसी व्याप्ति नहीं है, इसलिए चूल्हे से नीचे उतारे हुऐ तण्डुल में शुद्ध सिद्धत्व रहता है, यही "उपरतक्रिय कृत' कहा जाता है, जो कृत का दूसरा विभाग है । प्रथम विभाग में आंशिक कृतत्व रहता है और द्वितीय विभाग में सर्वथा कृतत्व रहता है - यही कृत की भजना का मूल है । यदि यह आशंका की जाय कि-क्रियमाण कृत ही है, इस अपनी मान्यता की सिद्धि के लिए निश्चयनवादी ने जो "जहाँ जहाँ सिद्धत्वविशिष्ट साध्यता रहती है, वहाँ वहाँ सिद्धत्व रहता है" ऐसी व्याप्ति बतायी है वह ठीक नहीं है । सकल सिद्धवृत्ति निष्ठाप्रत्ययार्थ सिद्धत्व यदि एक होता, तब तो, सिद्धत्वविशिष्टसाध्यता का व्यापकत्व सिद्धत्व में आता और यह व्याप्ति भी बनती, परन्तु सिद्धत्व कहीं पर विपरिणामरूप होता है. जैसे दही में दूध का विपरिणामरूप सिद्धत्व रहता है । कहीं पर स्वरूपनिष्पत्ति रूप मिहत्व होता है, जैसे-"दण्ड-चकादि कारण समुदाय से घटस्वरूप की निष्पत्ति होती है, इसलिए घटपटादि में स्वरूपनिष्पत्तिरूप सिद्धि रहती है । कहीं पर विक्लित्तिरूप सिद्धि रहती है, जैसे-काष्ठ से बना हुआ जो स्तम्भ होता है, वह काष्ठ का ही विकार है. इसलिए उस में विक्लित्तिरूप सिद्धि रहती है। इसीतरह कहीं उपचयरूप, कहीं अपचयरूप भी सिद्धत्व होता है, ऐसे विविध सिद्धत्व का बोध तत्तत्समभिव्याहारविशेष से हो होता है । जैसे-दूध दहींरूप में परिणत हो गया, इस स्थल में दूध पद, दहींपद, परिणत पद-दुन तीनों का पूर्वापरभावरूप आकांक्षा से विपरिणामरूप सिद्धत्व की प्रतीति
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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