SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयरहस्य [नय की समानार्थक अन्य शब्दावली ] नया...इत्यादि-तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्यकार ने नय के ही सूचक अन्य शब्दों का उल्लेख किया है । उसका तात्पर्य यह है कि प्रापक, साधक, निर्भासक इत्यादि सभी शब्द नय शब्द के समानार्थक हैं । यद्यपि प्रापक, साधक इत्यादि शब्दों के अर्थों में कुछ कुछ भेद अवश्य है, तो भी भाष्यकार ने अनर्थान्तरं शब्द से जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि विशेष रूप से अर्थप्रकाशकत्व सभी में समान है इसीलिए इन शब्दों को समानार्थक कहना सङ्गत ही है। प्रापक शब्द से 'प्रापयन्ति तं तमर्थ ये ते प्रापकाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार स्वसम्मत युक्तियों द्वारा उन उन अर्थी का ज्ञान जो करावे वे प्रापककहे जाते हैं । प्रापक शब्द को नय शब्द का समानार्थक मानने में नी धातु के अर्थ में णि प्रत्ययार्थ प्रेरणा का अन्तर्भाव समझ लेना चाहिये । नय शब्द को कारक शब्द का समानार्थक मानने में धातूनामनेकार्थत्वात्-धातु अनेकार्थक होते हैं-इस न्याय से नी धातु के प्रसिद्ध अर्थ का त्याग कर के उसको कृधात्वर्थक समझना चाहिये, अर्थात्-नी धातु को कृ धातु के समानार्थक मानना चाहिए, क्योंकि 'कुर्वन्ति तत्तद विज्ञान ये ते कारकाः' ऐसी व्युत्पत्ति कारक शब्द की होती है । अपूर्व विज्ञान को जो करे वह कारक कहलाता है । नय शब्द को साधक शब्द का पर्याय मानने में भी नी धातु का मुख्यार्थ छोड देना चाहिये । साधयन्ति विज्ञप्तिं जनयन्ति-यह साधक शब्द की व्युत्पत्ति है । परस्पर व्यावृत्तिबुद्धि जिस से उत्पन्न हो उस का नाम साधक है। नय शब्द को निवर्तक शब्द का पर्यायवाचक मानने से नी धातु का निवर्तन अर्थ निकलता है । निर्वर्तयन्ति इति निर्वर्त्तका इस विग्रह के अनुसार वे अध्यवसायविशेष जय कहे जाते हैं जो अपने निश्चित अभिप्राय से उत्पन्न हैं। ऐसे ही नय शब्द को निर्भासक शब्द का पर्यायवाची मानने से नी धातु का दीप्ति अर्थ स्फुट होता है। निर्भासयन्ति जीवादीन् पदार्थान्-इस विग्रह के अनुसार वस्तु के किसी अंश का जो ज्ञापन करावे उसे निर्भासक कहते हैं । ऐसे ही नय शब्द को उपलम्भक शब्द का पर्याय मानने से नी धातु का उपलब्धि अर्थ सिद्ध होता है । उपलम्भयन्ति ये ते उपलम्भका इस विग्रह के अनुसार उन उन अत्यन्त सूक्ष्म अर्थो का विशिष्टक्षयोपशम से उपलम्भ जिस से हो उसे उपलम्भक कहते हैं । उपलम्भक शब्द से ज्ञानविशेष ही यहाँ लेना चाहिए । एसे ही नय शब्द को व्यञ्जक शब्द का समानार्थक मानने से नी धातु का व्यञ्जन अर्थ निकल आता है क्योंकि 'व्यञ्जयन्ति स्फुटीकुर्वन्ति' इस विग्रह के अनुसार जो वस्तु को अपने अभिप्राय के अनुसार स्पष्ट करे उसे व्यञ्जक कहते हैं । यहाँ प्रापक, कारक इत्यादि शब्दार्थों में जो कुछ भेद है वह विग्रह से निकले हुए अर्थ के अनुसन्धान करने पर भासित हो जाता है तो भी समान रूप से या विशेषरूप से अर्थबोधकत्व सभी पक्ष में समान है, इसलिए भाष्यकार ने जो पर्यायता का प्रतिपादन किया है वह युक्त ही है। अत्र प्रापकत्वं प्रमाणप्रतिपन्नप्रतियोगिप्रतियोगिमद्भावापन्ननानाधमै कतरमात्रप्रकारकत्वम् ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy