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________________ २२० उपा. यशोविजयरचिते पस्थितेहे तुत्वाच्छक्येतिप्रवेशे गौरवात् , 'प्रजयती'त्यादावनन्वयप्रसङ्गाच्च । 'पाकोऽयं' इत्यादौ तु "स्तोकं पचात" "स्तोकः पाक" इति प्रयोगयोर्विशेषाय घटादीनां धात्वर्थतावच्छेदक विशिष्ट शक्तिस्वीकारान्न दोष इति दिक् ॥ स्थिति होती है और “ज्ञा" धातु के लक्ष्यार्थ ज्ञानवंत का भी अभेदसम्भन्ध से चैत्र में ही अन्वय होगा, तब अनन्वयप्रसंगरूप जो आपने दोष दिया है, उस का सम्भव नहीं रहेगा ?" इस शंका का समाधान यह है कि आख्यातार्थसंख्या के अन्वय में प्रथमान्तपदोपस्थाप्य के अनन्वय प्रसंगरूप दोष का वारण यद्यपि हो सकता है, तो भी लक्षणापक्ष में ज्ञानवंतरूप लक्ष्यार्थ का अन्वय अभेदसम्बन्ध से प्रथमान्तपदोपस्थाप्य चैत्र में नहीं हो सकता है, क्योंकि धात्वर्थप्रकारकबोधत्वावच्छिन्न के प्रति समानविशेष्यतासम्बन्ध से आख्यातजन्य उपस्थिति कारण है-ऐसा ही सामान्यतः कार्यकारणभाव मानना उचित है। "शक्तिप्रयोज्य धातूज उपस्थिति विषयधात्वर्थप्रकारकबोध के प्रति समानविशेष्यतासम्बन्ध से आख्यातजन्य उपस्थिति कारण है" यह कार्यकारणभाव योग्य नहीं हैं क्योंकि शक्तिप्रयोज्यत्व का कार्य तावच्छेदककोटी में प्रवेश होने से गौरवरूप दोष सहज है । इम परिस्थिति में ज्ञानवंतरूप ज्ञा धातु के लक्ष्यार्थ का चैत्रादि में अभेदसम्बन्ध से अन्वय सम्भव नहीं रहता है, क्योंकि चैत्रादि की उपस्थिति आख्यातजन्य नहीं होती है किन्तु प्रथमान्तपदजन्य होती है, इसलिए लक्षणापक्ष युक्त नहीं है । इसीतरह “नष्टो घटः” यहाँ पर भी “नश" धातु की नाशवंत में लक्षणा कर के उस लक्ष्यार्थ का घटरूपप्रथमान्तार्थ में अभेद सम्बन्ध से अन्वय नहीं हो सकता है क्योंकि घट की उपस्थिति आख्यातजन्य नहीं होती है। मुलग्रन्थ में आख्यातजन्य उपस्थिति के स्थान में "आख्यातादिजन्योपस्थिति" ऐसा पाठ है । इस पाठ में आदि पद के प्रयोग का तात्पर्य यह है कि “विशेष्यतासम्बन्ध से धात्वर्थप्रकारकबोध के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से कृत्प्रत्यजन्योपस्थिति कारण है" ऐसा भी कार्यकारणभाव मानना आवश्यक है । इसीलिए "पाचकः चैत्रः” इत्यादि स्थल में “पच" धात्वर्थपाकप्रकारक कर्तृ विशेष्यकबोध होता है, उस कर्ता की उपस्थिति आख्यातजन्य न होने पर भी 'अक' इस कृत्प्रत्यय से जन्य तो होती ही है। अतः उक्तवाक्य से "पाककर्ता चत्र' या “पाकानुकुल कृतिवाला चैत्र" ऐसा बोध होता है। यदि ऐसा कहा जाय कि-"उक्त कार्यकारण भाव में शक्तिप्रयोज्यत्व का कार्यतावच्छेदककोटि में प्रवेश मानने पर गौरव तो होता है परन्तु वह गौरव दोषरूप नहीं है क्योंकि वह फलमुख गौरव है क्योंकि उस का निवेश रहने पर "नष्टो घटः” इस स्थल में नाशवंतरूप “नश धातु के लक्ष्यार्थ' का अभेद सम्बन्ध से घटरूप नामार्थ में अन्वय होने से उक्तवाक्य की उपपत्ति होती है"-परन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि इसरीति से “नष्टो घटः” इस वाक्य की उपपत्ति करने पर भी 'प्रजयति चैत्र' इत्यादि वाक्य की उपपत्ति नहीं होगी क्योंकि यहाँ भी आप को “जि" धातु की जयवंतरूप अर्थ में लक्षणा करनी होगी, उस लक्ष्यार्थ के एकदेश जयरूप अर्थ में "प्र" शब्दार्थ प्रकर्ष का अन्वय नहीं होगा क्योंकि एक देश में अन्वय करना यह “पदार्थ का पदार्थ के साथ अन्वय होता है, पदार्थकदेश के साथ नहीं"-इस नियम के विरुद्ध होगा, तब तो प्रकर्ष
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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