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________________ २१४ उपा. यशोविजयरचिते अस्तु वा तथा । तथापि कृत्प्रत्ययात्पित्तेः प्रातिपदिकार्थ घटे कथमन्वयोऽयोग्यत्वात् ? 'परम्परासम्बन्धेन तत्र तदन्वयोपपत्तिरिति चेत् ? न, विद्यमानघटे "न नष्टो घट" इति प्रयोगानापत्तेः, वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्याभावप्रतियोगिता"अय अपाक्षीत्' इसतरह के प्रयोग का भी प्रसङ्ग हो जायगा । जब कि उस स्थिति में तो "अय पचति” ऐसा ही प्रयोग देखने में आता है ?"-परन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि भविष्यत् अर्थ में विधीयमान प्रत्यय का कृतिप्रागभावमात्र अर्थ नहीं है किन्तु आद्यक्रातिप्रागभाव अर्थ है । अतः भाविकृति के प्रागभाव को लेकर "पक्ष्यति" इसतरह के प्रयोग की आपत्ति देना योग्य नहीं है । कृति की वर्तमानतादशा में आद्यकृति का प्रागभाव तो रहता ही नहीं है, इसलिए “पक्ष्यति" इस प्रयोग का प्रसंग सम्भवित ही नहीं होता है। इसीतरह अतीतार्थक प्रत्यय का भी आद्यकृतिध्वसमात्र अर्थ नहीं है, किन्तु चरमकृतिध्वस भी उस का अर्थ है और वह पुरुष में रहता नहीं है, किन्तु चरम कृति का प्रागभाव ही रहता है, इसलिए उस काल में “अपाक्षीत्" इस प्रयोग का प्रसङ्ग देना भी उचित नहीं है । [यहाँ तक के ग्रन्थ से शंकाकार ने अपने पक्ष का समर्थन किया है कि प्रत्ययार्थ काल का प्रत्ययार्थकृति में ही अन्वय होता है, इस नियम के मान लेने पर "नष्टो घटः" "नश्यन घटः' इत्यादि प्रयोगों की अव्यवस्था नहीं होती है।] समाधानवादी का कहना यह है कि "घट जानाति" इत्यादि स्थल में "ति" प्रत्ययार्थ वर्तमानकाल का अन्वय "ज्ञा" धात्वर्थ ज्ञान में ही देखने में आता है, अतः "घट' जानाति चैत्रः” इत्यादिवाक्य से 'घटविषयक वर्तमानकालीन ज्ञानवान चैत्र' का बोध होता है, इसलिए 'विशेष्यता सम्बन्ध से प्रत्ययार्थ कालप्रकारक बोध के प्रति विशेभ्यतासम्बन्ध से प्रत्ययजन्य उपस्थिति कारण है' इसप्रकार के कार्यकारणभाव में व्यभिचार उपस्थित होता है। अत: ऐसा कार्य करणभाव ही नहीं बन सकता है। तब एतत्कार्यकारण भावमूलक "एकपदोपात्तत्व प्रत्यासत्ति से प्रत्ययार्थकाल का प्रत्ययार्थ कृति में ही अन्वय होता है"-ऐसा नियम मानना भी उचित नहीं है । तब तो “नष्टो घदः" "नश्यन् घटः', इत्यादि प्रयोगों की अव्यवस्था आप के मत में लगी रहती है ।। [ कृत्प्रत्ययार्थ उत्पत्ति का प्रातिपदिकार्थ में अनन्वय दोष ] [अस्तु वा तथा] 'प्रत्ययार्थ काल का प्रत्ययार्थ कृति में ही अन्वय होता है'-इस नियम में व्यभिचार यद्यपि जानाति इत्यादि स्थल में होता है इसलिए उस व्यभिचार को वारण करने के लिए ज्ञानार्थक धातु भिन्न धातुस्थल में ही यह नियम माना जाय, तो भी "नष्टो घटः” “नश्यन् घटः” इस प्रयोग की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि प्रत्ययार्थ काल से अन्वित प्रत्ययार्थ उत्पत्ति का अन्वय नाश में ही होता है। तब उस उत्पत्ति का अन्धय प्रातिपदिकार्थ घट में नहीं होगा क्योंकि एकत्र विशेषणरूप से अन्वित पदार्थ का अन्यत्र विशेषणरूप से अन्वय नहीं माना गया है। धात्वर्थनाश में अन्वित होने के बाद प्रत्ययार्थ उत्पत्ति को प्रतिपादिकार्थघट में अन्वित होने की योग्यता ही नहीं रह जाती है। अतीतकालीन या वर्तमाकालीन उत्पत्ति का बोध जैसे नाश में होता है
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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