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________________ १९८ उपा. यशोविजयरचिते ___ अत एव "इतरकारणविशिष्ट चरमकारण सामग्री" इति सामग्रीलक्षणमन्यत्र निराकृतम् , विनिगमनाविरहात् । न च सम्बन्धलाघवं विनिगमकं, विशेष्य इव विशेषणे तत्सम्बन्धग्रहावश्यकत्वे तदसिद्धेरिति दिक् ।। [ सामग्री की व्याख्या में विनिगमनाविरह ] जहाँ दोनों ओर प्रबल युक्तियाँ दिखाई जा सकती है वहाँ किस को बलवान् माने और किस को दुर्बल ? इस में इच्छा ही प्रधान है-इसी कारण से, जो कुछ लोग इतर समस्त कारणों की उपस्थिति में अन्तिमकारण को फलोत्पादक सामग्री रूप कहते हैं वह निरस्त हो जाता है। सामग्रीवाद की चर्चा में किसी आचार्य का मत यह है कि "इतर कारण विशिष्ट चरम कारण ही सामग्री है" । जिस कारण के अव्यवहित उत्तर काल में कार्य की उत्पत्ति हो जावे वही कारण चरम कारण माना जाता है। वह कारण यदि अन्य कारणों से युक्त हो, तो वही चरम कारण सामग्री पदार्थ है क्योंकि उस के बाद कार्य अवश्य होता है, इसलिए “सामग्री कार्यव्याप्य होती है" यह नियम भी माना गया है । इस लक्षण के अनुसार अव्यवहित कारण में ही कारणत्व की व्यवस्था सिद्ध होती है, जो निश्चयनय अथवा क्रियानय वादी को अभिमत है। परन्तु इस मत में विनिगमना विरह के कारण अन्य आचार्य इस सामग्री के लक्षण में सहमत नहीं होते हैं। उन का आशय यह है कि-चरमकारण विशिष्ट इतरकारणों को ही सामग्री का लक्षण क्यों न माना जाय? दोनों लक्षणों में किसी एक लक्षण को ही प्रमाणित करे ऐसी कोई अधिक बलवान् यक्ति तो है नहीं। यदि यह कहा जाय कि -"इतरकारणविशिष्ट चरमकारण को सामग्री मानने में विनिगमना का विरह जो आपने बताया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि जिन वस्तुओं में कार्यकारणभाव माना जाता है, उन मे एकाधिकरणवृत्तित्वरूप सामानाधिकरण्य भी माना जाता है। जिस देश में कार्य उत्पन्न होकर रहता हो उस देश में कारण को रहना आवश्यक है। कार्य और कारण इन दोनों की स्थिति यदि भिन्न-भिन्न देश में होती है तो उस कारण से वह कार्य नहीं होता है। भाजन में अग्नि का संयोग न हो तो उस में स्थित चावल से ओदन नहीं बनता है तथा उस भाजन में रहा हुआ जल गर्म नहीं होता है, इसलिए कार्य और कारण इन दोनों की एकदेश में स्थिति आवश्यक मानी गई है। कार्य को कार्याधार देश में रहने के लिए जिस सम्बन्ध की आवश्यकता होती है, वह सम्बन्ध कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध माना जाता है और कार्याधारदेश में कारण को रहने के लिए जो सम्बन्ध अपेक्षित होता है, वह सम्बन्ध कारणतावच्छेदक कहा जाता है । इतरकारणविशिष्ट चरमकारण रूप सामग्री पक्ष में घटादि के प्रति चरमकारण जो कुम्भकार का हस्तव्यापार आदि, वह घटरूप कार्य के आधारभूत कपालादि देश में आश्रयता सम्बन्ध से रहता है, इसलिए आश्रयता सम्बन्ध चरमकारण का कारणतावच्छेदक सम्बन्ध होगा, वह सम्बन्ध साक्षात् सम्बन्धरूप पडेगा । चरमकारणविशिष्ट इतरकारण को यदि सामग्री का लक्षण माना जाय तो वे इतर कारण दण्ड, चीवर, चक्र, कुम्भकार आदि ही घट के प्रति होंगे। इन इतर कारणों का कपाल में रहना
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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