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________________ नयरहस्ये नयबलाबलविमर्शः स्वविषयसमवधाननियतेतरविषयसमवधानं विशेष' इति चेत् ? न, चरमकारणीभूत क्रियाजनकज्ञान विषयत्वात् ज्ञाननयस्यापि विशेषात् । 'क्रियानये कायौ पयिको विशेषो, ज्ञाननये तु व्यवहारौपयिक' इति चेत् ! न, ज्ञाननयविशेषस्यापि परम्परया कायौ पयिकत्वात् , पारम्पर्यानन्तर्य योर्विशेषश्चेच्छामात्रादेवेत्युक्तम् ॥ उत्तरोत्तरनय पूर्व-पूर्वनयापेक्षया सूक्ष्मवस्तु को मानते हैं । इसलिए उत्तरोत्तरनय सूक्ष्मदर्शी होने के कारण पूर्वपूर्वनय की अपेक्षा से प्रबल होते हैं और पूर्व-पूर्वनय स्थूलदशी होने के कारण उत्तरोत्तरनय की अपेक्षा से दुर्बल होते हैं । इस प्रकार नयों के विषयों में सूक्ष्मत्व ही प्रबलता का प्रयोजक और स्थूलत्व ही दुर्बलता का प्रयोजक होता है " ऐसा जो सुना जाता है वह भी अपेक्षाधीन है। [निश्चय] जैन सिद्धान्त में "नैगमत्व, व्यवहारत्व, संग्रहत्व" आदि रूप से जैसे नयों का विभाजन माना गया है, वैसे अन्यरूप से भी विभाजन माने गए हैं । जैसे द्रव्यार्थिकत्व और पर्यायार्थिकत्वरूप से भी इन सातों नयों का विभाग किया जाता है। द्रव्य की प्रधानता को लेकर वस्तु का प्रतिपादन करनेवाले नय “द्रव्यार्थिक" कहे जाते हैं । वे नय "नैगम, संग्रह, व्यवहार" ये तीन हैं । पर्याय की प्रधानता को लेकर वस्तु का प्रतिपादन जो करते हैं, वे पर्यायार्थिक विभाग में आते हैं जैसे-ऋजुसूत्र, शब्द, समाभिरूढ और एवम्भूत । ये सातों नय अर्थनय और शब्दनय रूप में भी विभक्त होते हैं । जहाँ शब्द के आधार पर नहीं किन्तु स्वतन्त्ररूप से अर्थ का विचार किया जाता है वे नय "अर्थनय” शब्द से व्यवहृत होते हैं । जैसे : नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र । जिन में शब्द के लिङ्गवचन आदि के आधार पर अर्थ का निर्णय किया जाता "शब्दनय” माने जाते हैं, क्योंकि इन में शब्द की ही प्रधानता रहती है। ऐसे नय शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये तीन हैं। ये सातों नय निश्चय और व्यवहार इस रूप में भी विभक्त माने गए हैं । निश्चयनय उसे कहा जाता है जो कार्य के निकटतमवर्ती कारणों का ही कारणरूप में स्वीकार करता है । व्यवहारनय पारम्परिक कारणों को भी कारणरूप में स्वीकार करता है। इसीतरह ये नय क्रियानय और ज्ञानरूपनय से भी विभक्त माने गए हैं । क्रिया को ही फलनिष्पत्ति में प्रधान मानता है वह क्रियानय है और ज्ञान का ही प्राधान्य मानता है वह ज्ञाननय माना गया है। प्रस्तुत में निश्चय-व्यवहार की बात है-"निश्चयनय” कार्य के प्रति जो अव्यवहित पूर्ववर्ती कारण होता है उसी में कारणत्व मानता है । जैसे घट के प्रति कुम्भकार का व्यापार ही कारण है और कुम्भकार का ज्ञानादि नहीं, इसलिए उस के मत में कार्य के प्रति वे ही कारण होते हैं जिन में कार्य का अव्यवहित आनन्तर्य रहता है, इस प्रकार कारणता की व्यवस्था में निश्चयनय को आनन्तर्य की अपेक्षा है। इसी तरह व्यवहारनय में जो जो कारण माने जाते है, वे कार्य की अपेक्षा से अव्यवहित पूर्ववती ही होना चाहि ऐसा आग्रह नहीं है किन्तु परम्परया जो कारण होते हैं वे भी व्यवहारनय से कारण माने गए हैं। जैसे-घट के प्रति कुम्भकार, दण्ड आदि भी कारण हैं। यहाँ पारम्पर्य की
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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