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________________ नयरहस्य "ब्रमः"-यह पद "ब्र" धातु से वर्तमान आख्यातप्रत्यय मन लगने पर बनता है । अभी ग्रन्थकार मङ्गलाचरण कर रहे हैं, इसके अनन्तर “नयरहस्य” ग्रन्थ का आरम्भ होगा, तथापि भविष्यत् अर्थबोधक आख्यात का प्रयोग न कर के जो वर्तमान आख्यात का इस से प्रस्तुत ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा ग्रन्थकार की सचित होती है। श्रोता के चित्त में सावधानतासिद्धि के लिए प्रतिज्ञा करना भी आवश्यक ही होता है, वह ग्रन्थकार ने किया है । 'अव्यवहित भविष्य में मैं ग्रन्थ करूँगा' इस प्रकार का ज्ञान जिस से हो उस क्रिया को प्रतिज्ञा कहते हैं । वह क्रिया यहाँ "ब्रूमः” इस शब्द के प्रयोग से प्रतीत होती है। वर्तमान के समीप में जो भविष्यत्काल है उस में वर्तमानकालबोधक प्रत्यय का प्रयोग हो सकता है । “वर्तमानसमीपे वर्तमानवद वा” यह व्याकरणकारों का अनुशासन इस बात को सिद्ध करता है। वर्तमान के समीप में जो भूतकाल या भविष्यत्काल हो उसमें भी वर्तमानकाल बोधक प्रत्यय का प्रयोग किया जा सकता है' यह उक्त व्याकरणानुशासन का अर्थ है । इस हेतु से भाधिकाल को लक्ष्य में रखकर वर्तमानार्थप्रत्यय का "ब्रूमः" ऐसा प्रयोग करना असङ्गत नहीं है, किन्तु शास्त्रसम्मत ही है। प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितरांशाऽप्रतिक्षेपी अध्यवसायविशेषो नयः । दुर्नयस्याप्यधिकृतांशाप्रतिक्षेपित्वात्तत्राऽतिव्याप्तिवारणाय 'प्रकृतवस्त्वंशग्राही' ति । एवञ्च तत्पदेन तद्भिन्नप्रतिपन्थिधर्मोपस्थितेन दोषः । प्रकृतवस्त्वंशग्राहित्वमपि दुनयेऽतिव्याप्तमेवेति तदितरांशाऽप्रतिक्षेपी' ति । सप्तभङ्गात्मकशब्दप्रमाणप्रदीर्घसन्तताध्यवसायैकदेशेऽतिव्याप्तिवारणायाध्यवसायपदम् । रूपादिग्राहिणि रसायप्रतिक्षेपिण्यपायादिप्रत्यक्षप्रमाणेऽतिव्याप्तिवारणाय 'विशेष'पदम् ॥ [नय की व्याख्या और उसका पदकृत्य] "प्रकृतवस्त्वंशग्राही" इत्यादि-प्रकृत वस्तुके किसी एक अंश का ज्ञान जिस से हो और उस अंश से भिन्न अंश का निषेध न हो, ऐसा अध्यवसाय विशेष ही "नय" पदार्थ है । यथा-"घट सत् है" इस ज्ञान में प्रकृतषस्तु घट है, जो सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनन्तधर्मात्मक है । जैन दर्शन में धर्म और धर्मी का कथञ्चित् अभेद मान्य होने से घटरूप धर्मी भी सत्त्व आदि अनन्त धर्मात्मक कहा जाता है। तथा धर्म और धर्मी का कथञ्चित् भेद भी जैनदर्शन में मान्य है, इसलिए सत्त्व और असत्त्व आदि अनेक अंश घट में रहते हैं, उन अंशों में से सत्त्वांश जो घट में 'घटः सन्' इस ज्ञान से विवक्षित है-उसका अवभास तो होता है, अविवक्षित अंश जो असत्व आदि है उनका निषेध नहीं किया जाता है, इसलिए 'घटः सन्' इस तरह का अध्यवसाय "नय” है। ___ इस अध्यवसाय का बोधक "घटः सन्" यह वाक्य "नयवाक्य" माना जाता है। "नयन्ते इति नयाः” इस व्युत्पत्ति से भी, सामान्यरूप से या विशेषरूप से अर्थ के किसी एक अंश को जो प्रकाशित करे और तदन्य अंश में जो उदासीनता बतावे वह अभि.
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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