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________________ नयरहस्य करना इनका अभीष्ट है, इसलिए 'इन्द्र' पद का प्रयोग न करके 'ऐन्द्र' पद का प्रयोग किया है । ऐन्द्र' पद में जो प्रथम अक्षर है वही (एँ) उपाध्यायजी का सिद्धिप्रद सारस्वत मन्त्र है। _ 'नत्वा'-"नम्' धातु से “त्वा" प्रत्यय लगाने से “नत्वा' शब्द बनता है । “नम्" धातु का अर्थ नमस्कार होता है । जिस क्रिया से नमस्कार करनेवाले की अपेक्षा, जिसको नमस्कार किया जाता है उस में उत्कर्ष का द्योत न हो, यही क्रिया 'नमस्कार' पद का अर्थ है। वह क्रिया यहाँ पर शुभमनोभावयुक्त कराञ्जलि-मस्तकनमन और शब्दप्रयोगरूप है । “वीरं नत्वा" इस शब्द प्रयोग से वीर हम से उत्कृष्ट हैं, ऐसा भाव उपाध्यायजी को अवश्य रहा होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है । "त्वा' प्रत्यय से 'ग्रन्थारम्भापेक्षया पूर्वकाकालीनत्व' नमस्कार पदार्थ में बोधित होता है। "वीर"को नमस्कार करने के बाद ही ग्रन्थ रचना का आरम्भ करना ग्रन्थकार को अभीष्ट है, यह "त्वा" प्रत्यय से विदित होता है । 'वीरम्'-'विशेषेण ईरयति-कम्पयति शत्रन्'-इस व्युत्पत्ति के अनुसार "वीर" शब्द का अर्थ होता है शत्रुओं को नष्ट करनेवाला । 'नाम के एक देश के ग्रहण से सम्पूर्ण नाम का बोध हो जाता है,' यह लोक-न्यायसिद्ध वस्तु है, जैसे-सत्यभामा का बोध सत्या और भामा दोनों शब्द से हो जाता है । सत्यभामा के लिए केवल सत्यापद और केवल भामापद का प्रयोग शास्त्रों में भी पाया जाता है। इसी न्याय के अनुसार 'महावीर' अर्थ में उपाध्यायजीने 'वीर' शब्द का प्रयोग किया है। लोक में जो बाह्य शत्रुओं को जीतने का बल-सामथ्र्य रखता है, वह आन्तर शत्रु जो "राग-द्वेषादि" उन को न जीत सकने पर भी "वीर" शब्द से व्यवहृत होता है। किंतु "महावीर" स्वामीने आन्तर शत्रु जो राग-द्वेष आदि हैं, उन पर भी विजय प्राप्त किया था, इसलिए वे महावीर शब्द से व्यवहृत हुए और महावीर शब्द उन में रूह हो गया। इसलिए महावीरस्वामी में महावीर शब्द योगरूढ है। योगरूढ शब्द वही कहा जाता है जिस से अवयवार्थ के साथ-साथ समुदायार्थ भी भासित होता हो । जैसे-पङ्कज शब्द से 'पङ्क में उत्पन्न होनेवाला' ऐसा अवयवार्थ भासित होता है और उसके साथ ही रूढि से कमलरूप अर्थ भी भासित होता है, उसीतरह "महावीर" शब्द से 'अन्तःशत्रुओं का विजेता' इस अवयवार्थके साथ अन्तिम तीर्थकररूप समुदायार्थ भी रूढि से भासित होता है । इसलिए "महावीर" पद चरम तीर्थङ्कर में योगरूढ है । रागादि अन्तःशत्रुविजेता चरम तीर्थकर यह “महावीर" शब्द का शुद्ध अर्थ है । "वीर" इस विशेष्य पद से जो अवयवार्थ भासित होता है, उससे अपायापगमातिशय का द्योतन होता है। "तत्त्वार्थदेशिनम्"-"तत्त्वं-अर्थ-दिशति" इस विग्रह के अनुसार 'तत्त्वभूत अर्थ के उपदेष्टा महावीरस्वामी थे' इस वस्तु का इस विशेषण से सङ्केत किया गया है। तत्त्वभूत अर्थ वस्तुमात्र में अनेकान्तात्मकत्व आदि ही है, जो द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय इन दोनों के द्वारा समझा जाता है । जैनसिद्धान्त में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यविशिष्टत्व रूप सत्त्व सभी वस्तु में मान्य है। 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी से
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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