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________________ १०६ उपा. यशोविजयरचिते ऋजुसूत्राद्विशेषः पुनरस्येत्थं भावनीयः यदुत संस्थानादिविशेषात्मा भावघट एव परमार्थसः , तदितरेषां तत्तुल्यपरिणत्यभावेनाऽघटत्वात् । 'घटव्यवहारादन्यत्रापि घटत्वसिद्धिरि ति चेत् ? न, शब्दाभिलापरूपव्यवहारस्य सकेतविशेषप्रतिसन्धाननियन्त्रितार्थमात्रवाचकतास्वभावनियम्यतया विषयतथात्वेऽतन्त्रत्वात् , प्रवृत्त्यादिरूप व्यवहारस्य चाऽसिद्धेः । 'घटशब्दार्थत्वाऽविशेषे भावघटे घटत्वं नापरत्रेत्यत्र किं नियामक मिति चेत् ? अथक्रियैवेति गृहाण । [साम्प्रतनय में ऋजुसूत्र की अपेक्षा विशेषता] (ऋजुसूत्रा०) ऋजुमूत्र की अपेक्षा से जो साम्प्रत में विशेष है, उस को इस तरह समझना चाहिए कि पृथुबुध्नोदरादि आकाररूप संस्थान से युक्त और जलाहरणादि क्रिया में समर्थ भावघट ही साम्प्रतनय की दृष्टि से परमाथ सत् है । ऐसे ही भावघट को यह मानता है, जो जलाहरणादि क्रिया कर सके । ऐसे ही भावघट में “घट' शब्द का प्रयोग उपपन्न होता है, क्योंकि चेष्टार्थक घद धातु से घट शब्द बनता है, तथा जलाहरणादि क्रिया समर्थ भाव घट में ही घट शब्दार्थत्व भी उपपन्न होता है । जलाहरणादि क्रिया समर्थ भावघट से भिन्न नामादिवटों को यह घट नहीं मानता, क्योंकि भावघट की जो जलाहरणादि अर्थक्रियारूप परिणति है, तत्सदृश परिणति नामादि घटों में नहीं है, इसलिए नामादि घट इस की दृष्टि से अघट है। ऋजुसूत्र की दृष्टि से तो नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ये चारों प्रकार के घट परमार्थ माने गए हैं । साम्प्रत का अभिप्राय यह है कि ऋजुसूत्र जो नामादि घटों को घट मानता है वह अयुक्त है, क्योंकि ऋजुसूत्र से पूछा जाय कि तुम भी अतीत, अनागत और परकीय घटों को तो घट नहीं मानते हो, उस का क्या कारण ? इस का जवाब ऋजुसूत्र यही देगा कि अतीतानागतादि घटों से जलाहरणादि अर्थक्रिया की सिद्धि नहीं होती है, इसलिए उन को घट मानने में कोई प्रयोजन नहीं है। तब ऋजुसूत्र को यह कहा जा सकता है कि नामघटादि से भी कुछ प्रयोजन नहीं बनता है, इसलिए उन को घट मानना संगत नहीं है, अतः जलाहरणादिसमर्थ पृथुबुध्नोदरादिआकारविशिष्ट भावघट को ही मानना युक्त है, ऐसे ही घट को साम्प्रत मानता है । यही साम्प्रत में विशेषिततरार्थग्राहित्व है और यही ऋजसूत्र की अपेक्षा से साम्प्रत की विशेषता है। [ व्यवहार से नामघटादि में घटत्वसिद्धि का निराकरण ] यदि यह शंका की जाय कि-'भावघट में जैसे “अयं घटः" ऐसा व्यवहार होता है, वैसे ही नामघट, स्थापनाघट और द्रव्यघट में भी “अयं घटः" ऐसा व्यवहार होता है, इसलिए घटत्वप्रकारक व्यवहाररूप हेतु से भाव घट को दृष्टान्त बना कर नामघटादि में "घटत्व" की सिद्धि अनुमान प्रमाण से जब होती है, तब नामघटादि में प्रमाणसिद्ध घटत्व का अपलाप करना “साम्प्रतनय” के लिये संगत नहीं है क्योंकि प्रामाणिक वस्तु का अपलाप कोई नहीं करता है ।'-इस शंका के समाधान में ग्रन्थकार बताते हैं कि
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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