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________________ नयरहस्ये ऋजुसूत्रनयः १४५ यदि इस पर यह कहा जाय कि-"असत् गर्दभसींग आदि का जैसे निषेध सम्भव नहीं है, वसे उस का विधान भी सम्भव नहीं है क्योंकि विधान भी किसी भाव धर्म का ही होता है । इस स्थिति में "शशशृङ्गमस्ति न वा” ऐसा यदि कोई प्रश्न करें तो उत्तरदाता यदि कहे कि 'शशशङ्ग है' तो वह अयुक्त भाषण के कारण निगृहीत हो जायगा। यदि उत्तर में यह कहे कि 'शशशृङ्ग नहीं है, तो भी वह अयुक्तभाषी ही माना जायगा क्योंकि 'शशशङ्ग का निषेध किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता' ऐसा आपने ही सिद्ध किया है, अतः "नास्ति' इस उत्तर में भी उत्तरदाता पराजित हो जायगा । यदि उत्तरदाता कुछ भी न बोलेगा, तो भी उत्तराप्रतिपत्तिरूप अप्रतिभा नाम के निग्रहस्थान में वह निगृहीत होने के कारण अवश्य पराजय को प्राप्त करेगा । इस रीति से उत्तर देने में भी उत्तरदाता को बधन प्राप्त होता है और न देने में भी बन्धन प्राप्त होता है, अतः "उभयतःपाशा रज्जुः” इस न्याय से उत्तरदाता को किंकर्तव्यविमूढ होना पडेगा ।-"परंतु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रश्नकर्ता को अपने वचन में ही विरोध आता है, वह इस प्रकार-“शशशृग अस्ति न वा ?" इस प्रश्न वाक्य में अस्तित्व और निषेध धर्म रूप से प्रतीत होता है, "शशश" धर्मीरूप से प्रतीत होता है, वह अत्यंत असत होने के कारण तुच्छ है, उस में अस्तित्व, नास्तित्व का प्रश्न ही नहीं हो सकता, इसलिए धर्मीवचनव्याघात यहाँ उपस्थित होता है, उसी से प्रश्नकर्ता का निग्रह हो जाता है इस हेतु से प्रश्नकर्ता को पुनः कुछ बोलने का अधिकार नहीं रहता है । इस स्थिति में उत्तरदाता यदि "अस्ति वा नास्ति' इन दोनों में किसी का कथन करे अर्थात् अस्तित्व या नास्तित्व का विधान करे अथवा अस्तित्व नास्तित्व उभय का निषेध करे, या कुछ भी न बोले तो भी उत्तरदाता को पराजय की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इस तरह प्रश्न कर्ता के स्वयं ही निगृहीत हो जाने पर उत्तरदाता के किसी भी प्रकार के अभिधान को असत् बनाने का अधिकार प्रश्नकर्ता को नहीं रहता है और उत्तरदाता यदि छ भी न बाले तो भी उस में अप्रतिभारूप निग्रहस्थान लागू नहीं होता है, उत्तर देने योग्य प्रश्न का उत्तर यदि प्रतिवादी न दे सके, वैसे स्थल में ही अप्रतिभारूप निग्रह स्यान लागू होता है । "शशशृङ्गमस्ति न वा" यह प्रश्न उत्तर देने योग्य ही नहीं है, क्योंकि शशशङ्ग में अभावाश्रयत्व और अभावप्रतियोगित्व किसी का सम्भव नहीं है, इसलिए उत्तरदाता को मौन रहने पर भी पराजय नहीं प्राप्त होता है । अतः “शशशृङ्गमसत्' इस वाक्य से शशशृङ्ग का निषेध जो ऋजुमत्र मानता है, वह युक्त नहीं है।" [ वैज्ञानिक सम्बन्ध के उपराग से शशसींग में नास्तिव्यवहार-समाधान ] इस आशङ्का का समाधान करते हुए ग्रन्थकार बताते हैं कि जैसे "न्याय, वैशेषिक" आदि अन्य दर्शनवादियों के मत में "विशिष्ट यह शुद्ध वस्तु से भिन्न नहीं होता" इस सिद्धान्त के अनुसार शुद्ध की अपेक्षा से अतिरिक्त विशिष्ट असत् माना जाता है, जैसेकुण्डलरहित चैत्र की अपेक्षा से "कुण्डल विशिष्ट चैत्र" उन के मत में अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि चत्र व्यक्ति तो वही है जो पूर्व काल में कुण्डल रहित था, उत्तरकाल में कुण्डलरूप विशेषण के योग से वह चत्र नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसलिए कुण्डल
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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