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________________ नयरहस्ये ऋजुसूत्रनयः १४३ यदि यह कहा जाय कि-"गर्द भसींग प्रसिद्ध वस्तु तो है नहीं, प्रसिद्ध वस्तुओं में ही किञ्चित्प्रकारक, किञ्चिद्विशेष्यक बोध देखा जाता है । जैसे-"भृतल घटवाला है" ऐसा वाक्यप्रयोग होता है उस में विशेष्यरूप से अभिमत भूतल है और विशेषणरूप से अभि. मत घट है और भूतल में घट का बाध नहीं है, इसलिए भूतल में बाधाभावरूप योग्यता भी है। योग्यताज्ञान को शाब्दबोध में कारण माना गया है, अयोग्यतानिश्चय को प्रतिबन्धक माना गया है । गर्दभसींग में जब कोई धर्म नहीं रहता है, तब असत्वधर्म भी नहीं रहेगा । असत्त्वधर्म का वहाँ वाध होने से अयोग्यतानिश्चयरूप प्रतिबन्धक की सत्ता में “गर्दभसींग असत् है" इस वाक्य से आप को भी “गर्दभसींग विशेष्यक असत्त्व प्रकारक स्वारसिक बोध" जो इस वाक्य में पठित पदों के अनुसार मानते हैं वह कैसे होगा ?"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं हैं । "मुख चन्द्रः" ऐसा वाक्यप्रयोग होता है, इस वाक्य में मुखरूप उपमेय में चन्द्ररूप उपमान के अभेद का आरोप होता है, अतः 'मुख चन्द्र से अभिन्न है' ऐसा बोध होता है । उपमेय में उपमान का अभेदज्ञान जहाँ होता है वहाँ रूपकालंकार माना जाता है, यह साहित्यकारों का सिद्धान्त है। इसीलिए इस वाक्य को वे लोग रूपकालङ्कार का उदाहरण मानते हैं । मुख में चन्द्र का अभेद बाधित है, तो भी 'चन्द्र से अभिन्न मुख है' ऐसा बोध होता है, उस का कारण यह है कि मुख में चन्द्र का अभेद वाक्यप्रयोगकर्ता को अभीष्ट है, इसलिए बाध होते हुए भी चन्द्र के अभेद का बोध मुख में श्रोता को भी होता है, यह ज्ञान योग्यता के आहार्य निश्चय से होता है । आहार्यनिश्चय उसे कहते हैं जो बाध होते हुए भो इच्छाधीन निश्चय हो । प्रकृत में भी गर्दभसींग में असत्त्वरूप धर्म का बाध होने पर भी गर्दभसींग में इच्छाधीन असत्त्व का निश्चय मानकर तत्स्वरूप आहार्य योग्यतानिश्चय के बल से "गर्दभसींग असत् है" इस वाक्य से गर्दभसीग विशेष्यक असत्त्वप्रकारक स्वारसिक बोध होने में कोई बाधा नहीं दीखती । अथवा “गधे का सींग असत् है" इस वाक्य से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह विकल्परूप ज्ञान है । विकल्प का लक्षण "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः" इस पातञ्जलसूत्र (१-९) के अनुसार यह होता है कि शब्द सुनने के बाद वस्तशान्य जो ज्ञान हो वह विकल्प कहा जाता है। विकल्पात्मक ज्ञान के प्रति अयोग्यतानिश्चय या बाधनिश्चय प्रतिबन्धक नहीं माना जाता। "गधे का सींग असतू है" इस वाक्य से होनेवाला शाब्दबोध भी वस्तुशून्य होता है, इसलिए विकल्परूप है, अतः इस के प्रति अयोग्यतानिश्चयप्रतिबन्धक नहीं होगा तो इस वाक्य से स्वरसिक गर्दभसींग विशेव्यक असत्त्वप्रकारक यथाश्रतार्थबोध होने में कोई हर्ज नहीं है। "श्रीहर्ष" ने स्व रचित खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ में भी ऐसा लिखा है-अर्थ के अत्यन्त असत् होने पर भी तदर्थविषयकज्ञान शब्द अवश्य करता है, शब्द से उत्पद्यमान उस ज्ञान के विषय का बाध यदि हो तो अप्रमाणरूप से उस का व्यवहार करना चाहिए । शब्द से उत्पद्यमान ज्ञान में विषय का बाध यदि न हो तो, प्रमाणरूप से उस का व्यवहार करना चाहिए।" "अंगुली के अग्रभाग में सौ हाथी विहार करते हैं" तथा "मेरे कान में प्रवेश करके सिंह हल्ला करता है"-इन वाक्यों के श्रवण से श्रोता को कुछ ज्ञान अवश्य होता है यह अनुभव सिद्ध है, इसलिए शाब्द ज्ञान में योग्यताज्ञान को कारण, अथवा अयोग्यता
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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