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________________ नयरहस्ये व्यवहारनयः ननु "कृष्णो भ्रमर" इति वाक्यवत् “पञ्चवर्णो भ्रमर' इति वाक्यमपि कथं न व्यवहारनयानुरोधि, तस्यापि लोकव्यवहारानुकूलत्वात् , आगमबोधितार्थेऽपि व्युत्पन्नलोकस्य व्यवहारदर्शनात् लोकबाधितार्थबोधकवाक्यस्याऽव्यवहारकत्वे च 'आत्मा न रूपवान्'इत्यादिवाक्यस्याप्यव्यवहारकत्वापातात्तस्याप्यात्मगौरत्वादिबोधकलोकप्रमाणबाधितार्थबोधकत्वात् अभ्रान्तलोकाबाधितार्थबोधकत्वं च उभयत्र तुल्यम् । 'प्रत्यक्षनियतैव व्यवहारविषयता न त्वागमादिनियते'ति तु व्यवहारदुनयस्य चार्वाकदर्शनप्रवर्तकस्य मतम्, न तु व्यवहारनयस्य जैनदर्शनस्पशिन (इति) चेत् ? सत्यम् , यद्यपि क्वचिददृष्टार्थे नैश्चयिकविषयतासंवलितैव व्यावहारिकविषयता स्वीक्रियते, तथापि लोकप्रसिद्धार्थानुवादस्थले क्वचिदेव सेति "कृष्णो भ्रमर" इति वाक्ये स्वजन्यबोधे भ्रमरविषयता निरूपितकृष्णत्वावच्छिन्नव्यवहारविषयतासत्वाद्वयावहारिकत्वम् , "पञ्चवर्णो भ्रमरः" इति वाक्ये च स्वजन्यबोधे भ्रमरविषयानिरूपितपञ्चवर्णत्वाख्यविषयतायां व्यावहारिकत्वाभावान्न तथात्वमिति दिक् ॥ [ 'पंचवर्णवाला भ्रमर' वाक्य में व्यावहारिकत्व की आशंका ] (ननु कृष्णो) यहाँ कोई शंका करता है-शंका:-"कृष्णो भ्रमरः" यह वाक्य लोकव्यवहारानुकूल होने के कारण व्यवहारनय के अनुरोध से जैसे प्रमाण माना जाता है, उसी तरह “पञ्चवर्णो भ्रमरः" यह वाक्य भी व्यवहारनय के अनुरोध से प्रमाण क्यों नहीं होगा ? यह वाक्य भी लोकव्यवहारानुकूल है । यद्यपि सकललोक भ्रमर में पञ्चवर्णत्व का व्यवहार नहीं करते हैं तो भी शास्त्रीयव्युत्पत्तिवाले लोग तो भ्रमर में पञ्चवर्णत्व का व्यवहार करते ही हैं और “पञ्चवर्णो भ्रमरः" ऐसा वाक्यप्रयोग भी करते हैं । "कृष्णो इस वाक्य में भी सकललोकव्यवहारानुकूलत्व तो नहीं है, क्योंकि शास्त्रीय व्युत्पत्ति रहित लोक ही भ्रमर में कृष्णत्व का व्यवहार करते हैं । अतः सकललोकव्यवहारानुकूलत्व इन दोनों वाक्यों में से किसी भी वाक्य में नहीं है। लोकैकदेशव्यवहारानुकूलत्व दोनों वाक्यों में है । तब "कृष्णो भ्रमरः” इस वाक्य में प्रामाण्य माना जाय और “पञ्चवर्णी भ्रमरः" इस वाक्य में प्रामाण्य न माना जाय, इस का नियामक कुछ भी देखने में आता नहीं है । अतः दोनों ही वाक्यों को समानरूप से व्यवहारनय के मत में प्रमाण मानना चाहिए ? । शास्त्रीयव्युत्पत्तिमान् लोक जो भ्रमर में पञ्चवर्णत्व का व्यवहार करते हैं, उस का आधार यही है कि आगम से भ्रमर में पञ्चवर्णत्व सिद्ध है-यह ख्याल यहाँ रखना चाहिए । यदि यह कहा जाय कि-"भ्रमर में पञ्चवर्णत्वरूप अर्थ आगम से भले सिद्ध होता हो, तो भी वह अर्थ लोकप्रमाण से बाधित है, क्योंकि भ्रमर में लोकप्रमाण से कृष्णवर्ण ही सिद्ध होता है, अतः “पञ्चवर्णो भ्रमरः" यह वाक्य लोकबाधित अर्थ का बोधक होने से लोक व्यवहारानुकूल नहीं माना जायेगा । अतः यव्यहारनय की दृष्टि में वह वाक्य
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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