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________________ नयरहस्ये व्यवहारनयः “लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थों व्यवहारः" इति तत्त्वार्थभाप्यम् । विशेष प्रतिपादनपरमेतत । यथा हि लोको निश्चयतः पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरे कृष्णवर्णत्वमङ्गीकरोति तथायमपीति लौकिकसमः । न च 'कृष्णो भ्रमर' इत्यत्र विद्यमानेतरवर्णप्रतिषेधाद् भ्रान्तत्वम् , अनुद्भूतत्वेनेतराऽविवक्षणात् , तद्व्युदासेऽतात्पर्यात्, उद्भूतवर्णविवक्षाया एवाभिलापादिब्यवहारहेतुत्वात् । कृष्णादिपदस्योद्भूतकृष्णादिपरत्वाद्वाऽतात्पर्यज्ञप्रत्येतस्याऽप्रामाण्येऽपि तात्पर्यज्ञप्रति प्रामाण्यात् , लोकव्यवहारानुकूलविवक्षाप्रयुक्तत्वेन च भावसत्यत्वाऽविरोधाद् । अत एव “पीतो भ्रमर" इति न व्यवहारतो भावसत्यम् , लोकव्यवहाराननुकूलत्वात् , नापि निश्चयतः, अवधारणाऽक्षमत्वादित्यसत्यमेव । प्रतियोगि, इदं आधेयम्, इदं अधिकरणम्' इत्यादि अनुगतव्यवहार तो होते ही हैं । उन अनुगतव्यवहारों का नियामक उन व्यवहारों में अनुप्रविष्ट कार्य, प्रतियोगि, अनुयोगि, आधेय, अधिकरण आदि शब्द ही हो सकते हैं इसलिए वे अनुगतव्यवहार भी शब्दानुगम से ही तार्किकों को भी साध्य मानना आवश्यक होता है। तद्वत् व्यवहारनय, सामान्य को न मानने पर भी 'अ घटः' इत्यादि अनुगतव्यवहारों का उत्पादन करता है-यह अभिप्राय ग्रन्थकारप्रयुक्त आदि पद से निकलता है। ग्रन्थकार का यह भी कहना है कि इस वस्तु का विस्ताररूप से निरूपण अन्यग्रन्थ में किया गया है, इसलिए यहाँ पर संक्षेप रूप से ही कथन किया है। [तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार व्यवहारनय की व्याख्या ] (लौकिकसम) लौकिकव्यवहार में कारणभूत अध्यवसायविशेष ही व्यवहारनय है, ऐसा पूर्व में ग्रन्थकार कह आए हैं । उस के समर्थन में तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य का उद्धरण यहाँ किया है । भाष्योक्त व्यवहारलक्षण में “लौकिकसम" शब्द में लौकिक शब्द से मनुष्यादि पुरुष की विवक्षा है । लौकिकपुरुष घटादिरूप विशेषों के द्वारा ही जलाहरणादि व्यवहार करता है, इसलिए व्यवहारनय लोकिकपुरुष के तुल्य है। यह "तत्त्वार्थभाष्य" उस वस्त को सिद्ध करता है कि व्यवहारनय की दृष्टि से घटादिरूप विशेष ही मान्य है। घटत्व, द्रव्यत्वादि सामान्य इस को मान्य नहीं है, क्योंकि घटत्वादि सामान्यों से कोई व्यवहार नहीं होता। इसतरह यह भाष्यग्रन्थ भी विशेष का हा प्रतिपादन करता हुआ ग्रन्थकारोक्त लक्षण का समर्थन कर रहा है । लौकिकसमत्व का तात्पर्य यह है कि निश्चय नय की दृष्टि से भ्रमर में कृष्ण, रक्त आदि पाँच वर्ण जैन शास्त्रों में माने गए हैं तो भी भ्रमर में सभी लोग कृष्णवर्ण ही मानते हैं। उसी तरह व्यवहारनय भी पांच वर्णो के होने पर भी कृष्णवर्ण ही मानता है। किसी लौकिक पुरुष को पूछा जाय कि भ्रमर किस वर्ण का होता है ? तो वह निश्चितरूप से यही जवाब देगा कि भ्रमर काला होता है। वैसे ही व्यवहारनय भी भ्रमर
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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