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________________ नयरहस्ये संग्रहनयः नयों से स्वीकृत अर्थ का संग्रह करने में जो विशेषरूप से प्रवृत्त हो ऐसे अध्यवसायविशेष को “संग्रहनय" कहा जाता है । इस लक्षण वाक्य में संग्रहपद लक्ष्य का बोधक है और पर्व के दो पद लक्षण के बोधक हैं । इस लक्षणवाक्य मे यदि “नेगमादि-उपगता!" इतना भाग निकाल दिया जाय तो संग्रहप्रवण अध्यवसाय विशेष इतना ही संग्रहनय का लक्षण होगा । तब सामान्यनैगम में संग्रह के लक्षण की अतिव्याप्ति हो जायगी। निर्विकल्प महासत्तारूप केवल सामान्यवादिनैगमनय को सामान्य नैगम कहा जाता है । "संग्रहनय" जैसे सामान्यरूप से सर्ववस्तु का बोध कराता है, वैसे ही सामान्यनैगम भी महासत्ताख्य सामान्यरूप से सभी वस्तु का बोध करता है, अतः संग्रहप्रवण अध्यवसायरूप है । इस अतिव्याप्ति का वारण करने के लिए नैगमादि-उपगतार्थ यह विशेषण लगाना चाहिए । यह विशेषण लगाने पर अतिव्याप्ति नहीं होती है, क्योंकि सामान्य नैगम नय नैगमादिनयस्वीकृत अर्थ का संग्राहक नहीं है-वह तो विशेषवत् केवल सामान्य का भी पृथकरूप से स्वीकार करता है इतना ही । इसलिए संग्रह का लक्षण वहाँ नहीं जाता है। "संगहणं संगिण्हइ संगिज्झते व तेण जं भेया । तो संगहो त्ति संगहियपिडियत्थं वओ जस्स ॥” (विशे० २२०३) इस "विशेषावश्यक भाव्य" गाथा में-संगृहीत पिंडित अर्थबोधक वचन जिस का हो, वह संग्रहनय है, ऐसा लक्षण किया गया है । संगृहीतपिडित शब्द के अर्थ को विशेषावश्यक भाष्यकार (संगहियमणुगमो वा वइरेगो पिंडियं भणियं-२२०४) इस गाथा के अनुसार बताते हैं कि सर्व व्यक्तिओं में अनुगत सामान्य का प्रतिपादक ही संगृहीत शब्दार्थ है । विशेषप्रतिपादकपरमतनिराकरणरूप 'व्यतिरेक' ही पिंडित शब्द का अर्थ है। इसलिए संग्रहनय का वचन अनुगम-व्यतिरेक अर्थवाला होता है, ऐसा भावार्थ फलित हुआ है । इस से विशेष का निराकरण संग्रहनय में सूचित होता है । इसी दृष्टि से उपाध्यायजी कहते हैं- संग्रह शब्द का अर्थ यथासंभव विशेष विनिर्मोक और अशुद्धविषयविनिर्माक इत्यादि समझना चाहिये । इस से यह सिद्ध होता है कि "संगृहीत-पिडितार्थबोधकवचन संग्रहनयस्य लक्षणम्” इसी लक्षण का उपाध्यायजी निर्देश करते हैं। इस लक्षण का भाव यह हुआ-विशेष का निराकरण संग्रहनय को अभिमत है। प्रस्थकस्थल में संग्रहनय विशुद्ध होने के कारण वनगमनादि रूप परम्परया प्रस्थक कारणों में कार्य का उपचार नहीं मानता है और धान्यमापनरूप कार्य के अकरण काल में निष्पन्न प्रस्थक को भी प्रस्थक नहीं मानता है किन्तु धान्यमापनरूप कार्य करण समय में ही निष्पन्न प्रस्थक को प्रस्थक मानता है, इसलिए कार्यविशिष्ट प्रस्थक व्यक्ति की अपेक्षया कार्यशून्य प्रस्थकव्यक्ति भिन्न सिद्ध होती है, अतः कार्यविशिष्ट प्रस्थकव्यक्तिगत प्रस्थकत्व सामान्य भी कार्यरहित व्यक्ति में संग्रह नहीं मानता है। इसलिए प्रस्थकस्थल में प्रस्थकत्व सामान्य का विधान संग्रहनय में नहीं रहता है । तब पूर्वोक्त लक्षणों की अनुपपत्ति अर्थात अव्याप्ति यहाँ प्राप्त होती है क्योंकि उन लक्षणों में सामान्य का विधान कहा गया है, प्रस्थकस्थल में तो संग्रह सामान्य का विधान नहीं करता है। यदि उपरोक्त लक्षण की
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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