SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयरहस्ये नैगमनयः न च तत्र पर्यायनयानां सङ्ग्रहस्वीकृतविधिविशेषपर्यवसानार्थ पर्याय विशेषणमुद्रया प्रवृत्तावपि "सविशेषण"इत्यादिन्यायाच्छुद्धपर्याय विधावेव तात्पर्यात् , अन्यनय विधिनियमानुद्देशलक्षणस्वातन्त्र्येण नयानां स्वविषयनिर्देशे विशेषणस्य कल्पितत्वनियम एवेति वाच्यम् । तथाप्यन्यत्वस्य स्वविषयविलक्षणविषयत्वरूपस्य निवेशेन नैगमभेदेषु विशुद्धनैगमे विशेषणस्य पर्यायस्याऽकल्पितत्वसिद्धेरप्रत्यूहत्वादित्यस्माभिरनुशीलितः पन्थाः समाकलितस्वसमयरहस्यैर्दिव्यदृशा निभालनीयः ॥ सामायिक नहीं मानता है, किन्तु उक्त विशेषणों से युक्त होने पर भी जो आत्मा षड्विध जीवनिकाय की हिंसा से निवृत्त है, उसी आत्मा को सामायिक मानता है । "नैगमनय” के मत से इन समस्त विशेषणों से युक्त अथवा इन गुणों में से एक विशेषण से भी या दो तीन विशेषणों से भी युक्त आत्मा सामायिक माना जाता है। ये सभी विशेषण आत्मा के गुणरूप पर्याय ही हैं। ये गुण यदि कल्पित होते तो विशेषणोपराग से नयों की प्रवृत्ति संभव नहीं हो सकती थी इसलिए 'कल्पित गुण ही नयों में विशेषणरूप से भासित होते हैं ऐसा नियम मानना ठीक नहीं है । अतः निक्षेपचतुष्टय का अभ्युपगम द्रव्यार्थिकनय में जो व्यवस्थित किया गया है वह न्याययुक्त ही है । [विशेषण कल्पित ही होने के नियम की शंका ] शंकाः-(न च तत्र) सावज्जोगविरओ० इस गाथा में साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भूत इन पर्यायनयों की पर्यायरूप विशेषण के उपराग से जो प्रवृत्ति हुई है वह तो आत्मसामान्य सामायिक है ऐसा विधान जो संग्रहनय ने किया है उस का विशेष में पर्यवसान करने के लिए ही हुई है । अर्थात् आत्मसामान्य सामायिक नहीं है किन्तु सावधयोग विरतत्व, त्रिगुप्तत्व, षट्जीवकायसंयतत्व आदि विशेषणों युक्त आत्मा ही सामायिक है, यह वस्तु सिद्ध करने के लिए ही पर्यायनयों की प्रवृत्ति हुई है, तो भी पर्यायनयों का तात्पर्य उक्त विशेषण विशिष्ट आत्मद्रव्य में नहीं है, किन्तु शुद्ध पर्याय के विधान में ही तात्पर्य हे, कारण पर्यायनयों की दृष्टि से द्रव्य है ही नहीं । इसलिए पर्याय विशिष्ट द्रव्य में पर्यवसान बताना भी वस्तुतः पर्यायनयों द्वारा हो सकता नहीं है, तब तो सविशेषणे० (हि विधि-प्रतिषेधौ विशेषणमुपसंक्रामतः, सति विशेष्यबाधे) इस न्याय से विशेष्यरूप द्रव्य का बोध पर्यायनयों की दृष्टि से होने के कारण पर्याय विशिष्ट द्रव्य का विधान शुद्ध पर्यायरूप विशेषण के विधान में ही फलित होगा। जैसे, घटत्वविशिष्ट घट में नित्यत्व का विधान नैयायिक की दृष्टि से विशेषणीभूत घटत्व में ही लागू होता है क्योंकि विशेष्यभूत घट में नित्यत्व बाधित है । तब विशेषणोपराग से पर्यायनयों की प्रवृत्ति सिद्ध नहीं होती है। विशेषणोपराग से प्रवृत्ति सिद्ध होने पर ही विशेषणों में अकल्पितत्व हो सकता है, क्योंकि कल्पित वस्तु को विशेषण बनाना सम्भवित नहीं होता है। "वन्ध्यापुत्रवान् अयं ग्रामः" इसतरह ग्रामविशेषणतया वन्ध्यापुत्र का प्रयोग कोई नहीं करता है। जब कि पर्यायनयों का शुद्धपर्याय के विधान में तात्पर्य सिद्ध होता है, तब वे संग्रहनय के विधान
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy