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________________ १०८ उपा. यशोविजयचिते ननु तथापि “णामाइतियं दबट्ठियस्स भावो अ पज्जवणयस्स"[७५]त्ति पूर्वमभिधाय पश्चात् “भावं चिय सद्दणया, सेसा इच्छति सव्वणिक्खेवे" [२८४७] तथा “सव्वणया भाव मिच्छंति" ॥ [३६०१] त्ति वदतां भाष्यकृतां कोऽभिप्राय इति चेत् ? ____अयमभिप्रायः-पूर्व शुद्धचरणोपयोगरूपभावमङ्गलाधिकारसम्बन्धान्नैगमादिना जलाहरणादिरूपभावघटाभ्युपगमेऽपि घटोपयोगरूपभावघटानभ्युपगमात्तथोक्तिः, पृथगनिक्षेपाच्च न प्रत्ययस्याभिधानतुल्यता, अग्रे तु व्यवस्थाधिकाराद्विशेषोक्तिरिति । करने के कारण नैगम का भी पर्यायार्थिकनय में प्रवेश हो जायगा' परन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्यनय पर्यायों को वास्तव नहीं मानता है, उस की दृष्टि से द्रव्य से व्यतिरिक्त पर्याय कल्पित ही है। अतः कल्पित पर्याय को मानने पर 'नैगमादि द्रव्यनय हैं और ऋजुसूत्रादि पर्यायनय हैं. ऐसा विभाग करने में कोई विरोध नहीं है । [ भाष्यकार के विरोधाभासी वचनों का क्या तात्पर्य है ? प्रश्न ] (ननु तथापि)-विशुद्धनैगम द्रव्य विशषेणतया पर्याय को भी स्वीकार करता है, इसलिए नैगमनय में भावनिक्षेप संगत है ऐसा व्यवस्थापन किया गया है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि “विशेषावश्यकभाष्यकार'ने पूर्व में “णामाइतिय"[गा० ७५ | इत्यादि से द्रव्यार्थिकनय में नामादि निक्षेपत्रय के अभ्युपगम का और पर्यायार्थिकनय में भावनिक्षेप मात्र के अभ्युपगम का वर्णन किया है, पश्चात् “भाव चिय सद्दणया" (गा. २८४७) इत्यादि गाथा से शब्दनयों में केवल भावनिक्षेप के अभ्युपगम का और शब्दनयों से इतर द्रव्यनयों में निक्षेप चतुष्टय के अभ्युपगम का वर्णन किया है। आगे चलकर “सव्वणया जं च भावमिच्छंति' (गा. ३६०१) इत्यादि गाथा से यह कहा है कि भावनिक्षेप को तो सभी नय अर्थात् द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय दोनों स्वीकार करते हैं । इस तरह पूर्वकथन के अनुसार द्रव्यार्थिक नय में निक्षेपत्रय के स्वीकार का वर्णन और अग्रिम गाथा से द्रव्याथिकनय में निक्षेपचतुष्टय का कथन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होता है। ऐसे परस्पर विरुद्ध वर्णन करने में "भाष्यकार' का क्या अभिप्राय होगा? यह प्रश्न है । [भाप्यकार के वचनों का तात्पर्य-समाधान ] ("अयमभिप्रायः")-पूर्व में “णामाइतियं दव्वट्टियस्स" इत्यादि गाथा से जो द्रव्यार्थिकनय में नामादि निक्षेपत्रय का अभ्युपगम भाष्यकार ने दिखाया है उस का अभिप्राय यह है कि-शुद्ध आचरण में उपयोग यानी सावधतारूप भावमङ्गल का वह प्रकरण है। नगमादि नय जलाहरणादिरूप भावघट को तो मानते हैं, किंतु घटोपयोगरूप भावघट को नहीं मानते हैं। प्रकरण तो शुद्ध चारित्र में उपयोग का है । अत: उपयोगरूप भाव का स्वीकार न होने के कारण द्रव्यार्थिकनय में निक्षेपत्रय का कथन प्रकरणानुरोध से युक्त ही है। तब यह शंका होती है कि-'नैगमादि यदि नामनिक्षेप को मानते हैं, तो उपयोग को भी जरूर मानेगे क्योंकि “अर्थाभिधानप्रत्ययाः तुल्यनामधेयाः" इस वचन के अनुसार उपयोग में भी नामतुल्यता आ जाती है। तब तो, घटोपयोगरूप भावघट का स्वीकार भी
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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