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________________ उपा. यशोविजयरचिते अत्रोच्यते-अविशुद्धानां नैगमभेदानां नामाद्यभ्युपगमप्रवणत्वेऽपि विशुद्धनगमलिए उभयाभ्युपगम पक्ष युक्त नहीं है । (२) दूसरा दोष उस पक्ष में यह आता है कि द्रव्यार्थिकनय द्रव्यपर्याय इन दोनों के अत्यन्त अभेद को ही इस मत के अनुसार स्वीकार करेगा और पर्यायार्थिकनय द्रव्य और पर्याय इन दोनों में अत्यन्त भेद को ही स्वाकार करेगा, इसलिए पृथगभूत अथवा समुदित इन दोनों नयों में मिथ्यादृष्टित्व का ही प्रसंग आयेगा । भेद विशिष्ट अभेद ग्राहित्वरूप सम्यग्दृष्टित्व इन दोनों नयों में नहीं रहेगा। (३) इस पक्ष में तीसरा दोष यह है कि, जब द्रव्यार्थिकनय द्रव्य और गुणादिरूप पर्यायों में कथञ्चित् अभेद मानता है, तब उस की दृष्टि से 'गुणो द्रव्ध' ऐसा वाक्यप्रयोग होता है । जब कि वह द्रव्य और गुणादि पर्यायों में अत्यन्त अभेद को स्वीकार करेगा, तब द्रव्य शब्द और गुणशब्द ये दोनों एक ही अर्थ के वोधक बनेंगे, इसलिए ये दोनों शब्द पर्यायशब्द बन जाएँगे अर्थात् घट शब्द का पर्यायशब्द कलश जसे होता है और कलश शब्द का पर्याय जैसे घट शब्द होता है वैसे ही द्रव्य का पर्यायशब्द गुण बन जायगा और गुण का पर्यायशब्द द्रव्य बन जायगा । तब पर्यायवाचक शब्दद्वय का “घटः कलशः” इस रूप से एक साथ प्रयोग जैसे नहीं होता है, वसे ही "गुणो द्रव्य' ऐसा एक साथ दोनों शब्दों का प्रयोग जो होता है, सो नहीं होगा । (४) तथा इस मत में पर्यायार्थिकनय एकान्त भेदोपराग से द्रव्यपर्याय इन दोनों का ग्राहक है, इसलिए गुणादि पर्यायों का ग्रहण करने के लिए पर्यायाथिकनय जेसे नयान्तर की अपेक्षा नहीं रहेगी। तब तो नयान्तर निरपेक्ष पर्यायार्थिकनय से ही द्रव्य का ग्रहण इस मत के अनुसार हो जायगा, इसलिए द्रव्यार्थिकनय का स्वीकार इस मत में निरर्थक बन जायगा । ग्रन्थकार ने "अन्तर्गडु" शब्द से निरर्थकत्व का ही संकेत किया है। 'अन्तगडु', शब्द का वाच्यार्थ यह है कि शरीर के कण्ठादि प्रदेश में जो मांसपिण्ड बढ आता है, वह अन्तर्गडु कहा जाता है, उस मांसपिण्ड से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। द्रव्यार्थिकनय में भी निष्प्रयोजनत्व होने के कारण अन्तर्गदुत्व का आरोप उस में किया गया है। (५) तथा पर्यायाथिकनय एकान्तभेदोपराग से गुणादि पर्याय और य इन दोनों का स्वीकार करता है। यहां द्रव्यस्वीकार पक्ष में पर्यायाथिकनय के मत से भी सामायिक द्रव्यरूप बन जायगा, क्योंकि एकान्तभेदरूप से द्रव्य भी उस का विषय बनेगा, अतः सामायिक को द्रव्यरूप मानने में उस को भी कोई विरोध नहीं होगा । तब द्रव्यार्थिकनय में ही द्रव्य सामायिक होता है, यह सिद्धान्त विरुद्ध पडेगा। (६) तथा, 'एकान्त अभेदोपराग से द्रव्यार्थिकनय द्रव्य और पर्याय इन दोनों को मानता है और पर्यायार्थिकनय एकान्तभेदोपराग से द्रव्य और पर्याय इन दोनों को मानता है'इस मत का भाष्यकार ने स्वयं ही खडन किया है । इन छह हेतु से यह मत ठीक नहीं है। तब तो नैगमनय यदि नामादि निक्षेपचतुष्टय का स्वीकार करेगा, तो नैगमनय में त द्रव्यार्थिकत्व की हानि होगी, यह मूल शंका खडी रहती है। [द्रव्यविशेषणतया पर्याय का स्वीकार निरापद है -समाधान ] (अत्राच्यते) उक्त दीर्ध शंका का समाधानः- "नैगमनय यदि निक्षेपचतुष्टय का स्वी. कार करें, तो उस में द्रव्यार्थिकत्व का व्याघात होगा क्योंकि, वह द्रव्यार्थिकनयों में परिगणित है और द्रव्यार्थिकनय द्रव्यमात्र का स्वीकार करता है"-इस मूल आशंका का
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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