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________________ उपा. यशोविजयरचिते गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितो द्रव्यजीव इत्येकेषां मतं, एतदपि न सूक्ष्मम्, सतां गुणपर्यायाणां बुद्ध्यापनयनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । न हि यादृच्छिक ज्ञानाय - तार्थपरिणतिरस्ति । 'जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो जीवशब्दार्थज्ञस्य शरीर वा जीवरहितं द्रव्यजीव इति नाव्यापिता नामादीनामि त्यपि वदन्ति || १०२ द्रव्यद्रव्यत्व का स्वीकार करना और उस के द्वारा द्रव्यनिक्षेप में व्यभिचार का वारण करना भी सङ्गत नहीं है क्योंकि इस रीति से द्रव्यमात्र में द्रव्यद्रव्यत्व सिद्ध हो जाता हैं । कारण, द्रव्यमात्र आदिष्टद्रव्यरूप क्रव्यान्तर के प्रति कारण बन जाते हैं। ऐसा मानने पर भावद्रव्य के उच्छेद का प्रसङ्ग आ जाता है । कोई द्रव्य यदि ऐसा हो जो द्रव्यान्तर का कारण न बने वही भावद्रव्य हो सकता है । ऐसे भावद्रव्य का सम्भव उक्त मान्यता के अनुसार नहीं हो सकता है, कारण, सभी द्रव्यों द्रव्यार्थिक नय से द्रव्यत्व का आदेश हो सकता है और ऐसे द्रव्य का सभी द्रव्य कारण बन सकते हैं । [ गुणपर्यायरहित द्रव्य जीव की कल्पना अयुक्त ] सदा " ( गुणपर्याय) कोई आचार्य के मत से, प्रज्ञा के द्वारा क्रय से गुणपर्यायों की पृथक् कल्पना करने पर, द्रव्य गुणपर्याय से रहित हो जाता है, इसरीति से जीवरूप द्रव्य से जीव के गुण और पर्यायों का अपनय करने पर शुद्ध जीव द्रव्यजीव कहा जायगा, अतः द्रव्यनिक्षेप की प्रवृत्ति होगी । तब निक्षेप चतुष्टय में सर्ववस्तु व्यापिता की सिद्धि हो जायगी, - ऐसा समाधान किया जाता है । उन का आशय यह है कि द्रव्य का लक्षण तो " गुणपर्यायवद् द्रव्यम्" इस तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार यही सिद्ध होता है कि जिस में गुण और पर्याय सर्वदा रहे वही द्रव्य है । इन में गुण तो द्रव्य में सहभावि होने के कारण सदा रहते ही हैं, परन्तु पर्याय क्रमभावि होते हैं, इसलिए सभी पर्याय द्रव्य नहीं रहते हैं, तो भी कोई न कोई पर्याय सदा ही द्रव्य में रहता है । इसलिए द्रव्य का गुणपर्याय से वियुक्त होना यद्यपि सम्भवित नहीं है, तथापि बुद्धि कल्पना के द्वारा जीवादि द्रव्यों से उन के गुणपर्यायों का वियोजन किया जा सकता है। जिस दशा में गुणपर्यायों के रहते हुए भी बुद्धि के द्वारा वियोजन किया जायेगा, उस दशा में जीव भी द्रव्यजीव हो सकता है। इसलिए क्रव्यनिक्षेप की प्रवृत्ति जीव में भी हो सकती है। परन्तु इसतरह का समाधान सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर सङ्गत नहीं मालूम पडता । इस में हेतु यह है कि द्रव्य में विद्यमान गुणपर्यायों का बुद्धिमात्र से वियोजन नहीं किया जा सकता । जैसे- नीलघट में विद्यमान नीलगुण का बुद्धि से पृथक्करण होने पर भी वास्तव में वह घट अनील नहीं बन जाता है । नीलवट में 'यह घट नील नहीं है' ऐसी बुद्धि ही केवल होती है । नीलरूप का अपनयन नहीं होता है । उसी तरह जीव में विद्यमान ज्ञानदर्शनादि गुण और मनुष्य देवादि पर्याय का अपनयन बुद्धिमात्र से नहीं हो सकता है । तब तो द्रव्यजीव की असिद्धि होने से अव्याप्ति तदवस्थ ही रहती है । दूसरी बात यह है कि अर्थ की परिणति ज्ञानाधीन नहीं मानी गयी है । ज्ञान याहच्छिक हो सकता है । इच्छानुसार वस्तु का ज्ञान भिन्न-भिन्न रूप से हो सकता है, किंतु जैसा जैसा ज्ञान होता है, उस उस रूप से अर्थ का परिणाम होना देखने
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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